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________________ * परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १५३ * सम्यग्दृष्टि आत्मा के मूल स्वरूप को देखता है, विकार एवं मलिनता को नहीं वस्तुतः जो भी शुभ या अशुभ भाव (परिणाम) होते हैं, वे आत्मा के मूल स्वभाव या स्वरूप के नहीं हैं, किन्तु पर्याय में ऊपर-ऊपर से होने वाले विकारभाव (विभाव) हैं। अतः आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि ऊपर-ऊपर से होने वाले शुभ-अशुभ भावों के कारण शुद्ध स्वभावात्मक आत्मा को विकार-भावात्मक न मानकर अन्तर के मूल स्वरूप को देखता है। जैसे समुद्र के पानी में कहीं-कहीं मलिन तरंग दिखाई देती है, परन्तु उससे सारा समुद्र मलिन नहीं हो जाता। क्षणिक मलिन तरंग सारे समुद्र को मलिन करने में समर्थ नहीं है। जिस प्रकार, मलिन तरंग के समय भी समुद्र तो निर्मल ही है, उसी प्रकार वर्तमान दशा में किंचित ऊपरी मलिनता दिखाई देने पर भी चैतन्य-समुद्र तो निर्मल ही है। जो भी मलिनता दिखाई देती है, वह क्षणिक है, ऊपरी है; समग्र आत्म-स्वरूप या स्वभाव मलिन नहीं है। आत्म-स्वभाव शुद्ध एकरूप है। जो क्षणिक विकारभाव आता है, वह आत्मा के समग्र शुद्ध स्वरूप (स्वभाव) को मलिन करने में समर्थ नहीं है। इतने पर से आत्मा विकारात्मक ही है, ऐसा जानना-मानना अज्ञान है और आत्म-स्वरूप को विकार से भिन्न शुद्ध जानना-मानना सम्यग्ज्ञान है। मधर जल से परिपूर्ण क्षीरसागर के मूल स्वरूप को देखें तो वह (समुद्र) और उसका जल दोनों एकरूप और स्वच्छ प्रतीत होते हैं। तरंग की मलिनता तो बाह्य उपाधि है। उसी प्रकार यह आत्मा सहज चैतन्यरूप ज्ञानानन्द समुद्र है। उसमें वर्तमान में जो विकारभावरूप मलिन तरंग दिखाई देती है, वह उसके मूल स्वरूप में नहीं है। यदि अकेले आत्म-द्रव्य को मूल स्वरूप में देखा जाए तो उसके द्रव्य में, गुण में अथवा वर्तमान भाव में भी विकार नहीं है। आत्मा का मूल स्वरूप शुद्ध है और वही उपादेय है। समुद्र का ऐसा स्वभाव है कि वह अपने में मैल को रहने नहीं देता, उछालकर बाहर फेंक देता है, इसी प्रकार अनन्त ज्ञानादि आत्म-गुणरूप जल से परिपूर्ण शुद्ध आत्म-समुद्र में भी रागादि विकारभावों का प्रवेश नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मा अन्तरंग तत्त्व है और विकार बहिरंगतत्त्व है। अन्तरंगतत्त्व में बाह्यतत्त्व का प्रवेश हो नहीं सकता। कदाचित् आत्मा द्वारा अपने स्वभाव का भान भूलने से पुण्यादि विकाररूप बहिरंगतत्त्व का प्रवेश हो जाए तो भी शुद्ध आत्मा का स्वभाव विकार को नष्ट करने का है। ‘नयचक्र' में इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया है"जीव (आत्मा) स्वभावमय है, किन्तु किसी कारणवश वह परभावमय बन जाता है, उस समय यदि वह सावधान होकर स्व-स्वभाव से युक्त (स्वभाव में लीन) हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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