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* १५० * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
रागादि परभावों या विभावों में नहीं जाने दिया । इसी प्रकार जो मोक्षसाधक संसार के सजीव-निर्जीव पदार्थों को परभाव तथा कषायादि - नोकषायादि व रागादि भावों को विभाव समझकर उनसे दूर रहता है, उन्हें अपने (आत्मा के) नहीं मानता और उनकी इच्छा भी नहीं करता । स्वकृत कर्मोदय से प्राप्त जो शुभाशुभ भाव (पदार्थ) परभाव हैं तथा राग-द्वेष-मोह - कषाय आदि जो शुभाशुभ विभाव (विकारीभाव) हैं, वे आत्मा के असली स्वभाव नहीं हैं। जो साधक इस प्रकार आत्मा की विभिन्न पर्यायों पर दृष्टि न रखकर एकमात्र आत्म- द्रव्य पर अखण्ड ध्रुवदृष्टि रखता है, वह पर्यायों को जानता-देखता अवश्य है, परन्तु उनका आलम्बन नहीं लेता, उनसे स्वभाव में रमण करने में सहायक होने की आशा-आकांक्षा नहीं रखता। उसे आत्मा के शुद्ध सच्चिदानन्द-स्वरूप एवं स्वभाव का सतत भाव रहने से, वह पूर्वोक्त विभावों (विकारों) को अपने में आरोपित समझकर उन्हें नहीं अपनाता तथा कर्मजन्य शरीरादि परभावों पर राग-द्वेषादि से दूर रहता है, सिर्फ उनका ज्ञाता-द्रष्टा तथा साक्षी रहता है । यों वह साधक विकारों से विमुख होकर शुद्ध स्वरूप की ओर मुड़ जाता है। अर्थात् स्वभाव और परभाव-विभाव का भेदविज्ञानरूपी दीपक उसकी अन्तरात्मा में सतत प्रज्वलित रहने से वह रागादि परिणति को शुद्ध स्वभाव के रूप में कभी स्वीकार नहीं करता। उसे परभावभूत . उपाधि जानकर छोड़ता जाता है। रागादि परिणति छूट जाने से कर्मबन्ध की अनादि परम्परा टूट जाती है। नये कर्मों का संवर ( निरोध) होता जाता है और पूर्वबद्ध प्राचीन कर्म झड़ते जाते (निर्जरा होती जाती ) हैं । इस प्रकार स्वभाव में अखण्डित रूप से स्थिर रहने से वह क्रमशः सर्वकर्मों से विमुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा हो जाता है। '
योग्यता होते हुए भी अभेद ध्रुवदृष्टि न हो, वहाँ तक परमात्मा नहीं हो सकता
आत्मा में परमात्मा बनने की योग्यता होते हुए भी जब तक वह ( आत्मा ) स्वभाव को छोड़कर परभावों या विभावों में रमण करता रहे, परभावों से रागादि सम्बन्ध रखता है, पुण्यादि परभावों या कर्मजनित शरीरादि या स्त्री-पुत्रादि परभावों को ममता-मूर्च्छापूर्वक अपने मानता है, तब तक परमात्मा नहीं बन सकता। मिट्टी में घड़ा बनने की योग्यता होते हुए उस मिट्टी के साथ बालू (रेत) मिली हुई हो तो वह घड़ा नहीं बन सकती । वह घड़ा तभी बन सकती है, जब मिट्टी के साथ मिश्रित वालू रासायनिक मिश्रणों द्वारा चिकनी बना दी जाती है। इसी प्रकार शुद्ध आत्मा के साथ जब रागादि - विभावजनित कर्मरज झड़ नहीं जाती, अथवा समता, क्षमादि दशविध धर्म, द्वादशविध तप आदि द्वारा उसे झाड़ नहीं दी
१. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४०५-४०६
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