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________________ * परमात्मपद - प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १५१ * जाती और अपने सच्चिदानन्द - ज्ञानघनरूप शुद्ध स्वभाव पर अभेद ध्रुवदृष्टि नहीं रहती, तब तक सामान्य भव्य आत्मा का भी परमात्मा बनना संभव नहीं है। परभाव और विभाव: क्या हैं, किस प्रकार के हैं, क्या करते हैं ? अपनी आत्मा से भिन्न जितने भी स्व- आत्म- बाह्य पदार्थ हैं, भाव हैं, वे परभाव हैं। वे परभाव निर्जीव भी होते हैं, सजीव भी और रागादि कषाय- नोकषाय-मोहादि आत्म- बाह्य विकारी भाव (विभाव) के रूप में भी होते हैं। अपनी आत्मा के अतिरिक्त माता-पिता, भाई-बहन, कुटुम्ब, परिवार, ग्राम, नगर, समाज, राष्ट्र, धर्म-संघ, संस्था, गाय, घोड़ा, कुत्ता आदि प्राणी तथा विश्व के समस्त प्राणी सजीव परभाव हैं तथा तन, मन, वाणी, प्राण, इन्द्रियाँ, अंगोपांग, मकान, दुकान, बाग-बगीचा, बंगला, मोटर, वस्त्र - आभूषण, कारखाना तथा अन्य भोज्य-पेय पदार्थ, फर्नीचर आदि सब निर्जीव परभाव हैं। ये शुद्ध आत्मा के स्वभाव या आत्मिक गुणधर्म से जनितया प्राप्त नहीं हैं। इसी प्रकार इन्हीं परभावों पर राग, द्वेष, क्रोध आदि कषाय, मोह, कामना, वासना, लिप्सा, आसक्ति, घृणा, ममता आदि होना विभाव है, जो भावकर्मबन्ध के हेतु हैं, वे कर्मपुद्गल भी परभाव हैं। ये भी आत्मा के स्वभाव से, आत्म- गुणों से भिन्न हैं । ' स्वभाव की निश्चित प्रतीति कैसे हो, कब मानी जाए ? वास्तव में स्वभाव की, स्वरूप की या आत्मा के निज- गुण की निश्चित प्रतीति होना ही परमात्मभाव की साधना का श्रीगणेश है। स्वभाव की या आत्मा के शुद्ध स्वरूप की निश्चित प्रतीति कैसे हो ? इस सम्बन्ध में सीधा और सरल सहज उपाय है - आत्मा के शुद्ध (मूल) स्वभाव का यथार्थ ज्ञान । पानी का मूल शुद्ध स्वभाव शीतल है, उष्ण नहीं। परन्तु जब पानी उबल रहा हो या गर्म हो, तब उसके मूल (शुद्ध) स्वभाव का ज्ञान हाथ, पैर, आँख, कान, नाक, जीभ आदि इन्द्रियों से नहीं होता, तथैव उसके मूल शीतल स्वभाव का निर्णय राग, द्वेष, हठाग्रह, भय, पक्षपात, आकुलता, स्वार्थ, आसक्ति, मोह आदि विकारों के संकल्प-विकल्प से भी नहीं होता; परन्तु पानी के शीतल स्वभावरूप मूल स्वभाव के त्रैकालिक अनुभव ज्ञान से ही उसका निर्णय होता है। इसी प्रकार आत्मा की पर्यायों में विकार होते हुए भी सर्वज्ञ वीतराग आप्त तीर्थंकरों ने आत्मा का स्वरूप और स्वभाव शुद्ध चैतन्यमय अथवा ज्ञानमय (उपयोगमय) बताया है तथा उन ज्ञानी पुरुषों ने वैसा अनुभव भी किया है। १. (क) एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा विनिर्मलः साधिगम-स्वभावः । . बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ताः, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥ (ख) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४०६-४०७ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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