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________________ * १४८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * आत्मा में ही परमात्मा बनने की शक्ति है, शरीरादि में नहीं प्रत्येक आत्मा परमात्म-शक्ति से परिपूर्ण है। उसी में से परमात्म-शक्ति प्रगट. होती है। आत्मा में परमात्मा बनने की यह शक्ति कहीं बाहर से, पर-पदार्थों से या किसी शक्ति या भगवान के देने से नहीं प्रकट होती; वह उसके भीतर ही भरी है, वह उसके स्व-पुरुषार्थ से ही अभिव्यक्त होती है। जैसे-पिप्पल को चौंसठ पहर तक घिसने से उसमें से तीक्ष्णता (विशिष्ट शक्ति मात्रा) प्रगट होती है। वह तीक्ष्णता कोई बाहर से, किसी मंत्र-तंत्र से या किसी शक्ति के वरदान से नहीं प्रगट होती, न ही खरल में से वह प्रगट होती है। परन्तु पिप्पल में ही चौंसठ प्रहरी तीक्ष्णता शक्तिरूप से विद्यमान थी, वही प्रकट होती है। इसी प्रकार उस पिप्पल में चौंसठ प्रहरी तीक्ष्णता एक से लेकर तिरेसठ पहर तक की घुटाई से भी पूर्ण तीक्ष्णता नहीं आती। वस्तुतः पिप्पल की अधूरी घुटाई से चौंसठ पहर तक घोंटने से उत्पन्न पूर्ण तीक्ष्णता नहीं आती। पूर्ण तीक्ष्णता भी पिप्पल की पूरी शक्ति में से ही आती है। चूहे की मींगनी भी पिप्पल जैसे आकार की होती है, पर उसको घिसने से पिप्पलीजन्य तीक्ष्णता प्रकट नहीं होती: क्योंकि उसका स्वभाव ही वैसा नहीं है। पिप्पल में ही तीक्ष्णता प्रकट होने का स्वभाव है, इसलिए उसी में से ही तीक्ष्णता प्रगट होती है। वह तीक्ष्णता किसी बाह्य वस्तु के संयोग से भी प्रकट नहीं होती। इसी प्रकार आत्मा परिपूर्ण परमात्म-शक्ति से भरा है, उसी की श्रद्धा एवं उसी के यथार्थ ज्ञान की एकाग्रता से तथा शुद्ध (निश्चय) रत्नत्रय के अभ्यास से आत्मा में ही परमात्म-शक्ति या परमात्म-दशा प्रकट हो जाती है, किन्तु शरीर आदि बाह्य पदार्थों को मात्र घिस डालने या केवल सुखा डालने से परमात्म-शक्ति या परमात्म-दशा प्रकट नहीं होती, क्योंकि उनका वैसा स्वभाव ही नहीं है। इसी प्रकार अपूर्ण दशा में से भी परिपूर्ण परमात्म-दशा या परमात्म-शक्ति प्राप्त नहीं होती। परिपूर्ण परमात्म-दशा या परमात्म-शक्ति तभी प्रकट हो पाती है, जब आत्मा में परमात्मा के सदृश, जो ध्रुव स्वभाव त्रिकाल भरा है, उसी के आलम्बन से अपूर्ण दशा का क्षय (व्यय) होकर परिपूर्ण परमात्म-दशा प्रगट हो जाती है और वह होती है अपनी आत्मा में सिद्धत्व = परमात्मत्व स्थापित करने से ही। इस प्रकार परिपूर्ण परमात्म-दशा जब भी प्रकट होगी, शुद्ध आत्मा में से ही, आत्मा में ही प्रकट होगी। यही सिद्धि, मुक्ति या दूसरे शब्दों में परमात्मपद-प्राप्ति का ठोस उपाय है।' ऐसी अभेद ध्रुवदृष्टि वाले को अनन्त चतुष्टय की अभिव्यक्ति की चिन्ता नहीं होती दूसरी बात यह है कि जैसे कोई व्यक्ति अपने घर में पाँच किलो सोना लाकर रखता है तो उसकी पत्नी को यह विश्वास हो जाता है कि भविष्य में इस सोने के १. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४०४-४०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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