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________________ * परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १४७ * ऐसा मुमुक्षु भविष्य की अपेक्षा से सिद्ध-परमात्मा है वर्तमान काल की अस्थायी (क्षणिक) अपूर्णता को न देखकर जो सिद्ध-परमात्मा के समान पूर्णता की प्रतीति करके ऐसा दृढ़ विश्वास अन्तर में आता है तथा जो सिद्ध-परमात्मा को भाव से अपनी अन्तरात्मा में स्थापित कर लेता है, उसके विरुद्धभाव नष्ट हो जाते हैं और वह एक दिन सिद्ध-परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है। साथ ही जो मुमुक्षु साधक दृढ़ श्रद्धापूर्वक परमात्मा के स्वभाव के समान अपने आत्म-स्वभाव का निश्चय कर लेता है कि मैं पूर्ण, अशरीरी, अबन्ध परम आत्मा (शुद्ध आत्मा) हूँ, फिर उसमें राग-द्वेषादि विभाव और स्वभाव-रमण की अस्थिरता बहुत ही कम रह जाती है, क्योंकि मूल में तो समस्त आत्माओं की आन्तरिक दशा तो निश्चयदृष्टि से सिद्ध-परमात्मा के समान ही है। अतः जिसे यह दृढ़ श्रद्धा, प्रतीति और रुचि हो जाती है कि “मैं शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरावलम्बी, पुण्य-पापादिजन्य उपाधि से रहित, असंग, सिद्ध-परमात्मा के समान हूँ; सिद्ध भगवान की आत्मा जितनी महान् है, उतनी ही महान् मेरी आत्मा है। मेरी भी अन्तरंग दशा परमात्मा के समान है।" समझ लो, उसकी अन्तरात्मा में परमात्मा के समान अपने आत्म-स्वभाव की बात जम गई है। इसलिए भविष्य की अपेक्षा से उसे सिद्ध-परमात्मा कहा जा सकता है। ‘परमानन्द पंचविंशति' में इसी तथ्य को उजागर किया गया है-"शुद्ध, निरंजन, निराकार, निर्विकार तथा स्व-स्वरूप में सदैव स्थित और अष्ट गुणों से युक्त जो सिद्ध-परमात्मा हैं, उनके समान जो साधक अपनी आत्मा को जानता है, वह सद्-असद् विवेकशालिनी बुद्धि से युक्त पण्डित है। उसका सहजानन्द, ज्ञानघन चैतन्य परमात्मा के समान महान् · रूप से प्रकाशित (प्रकट) होता है।" तात्पर्य यह है कि मन, वचन, काया, कर्म आदि परभावों तथा रागादि विभावों . की उपाधि से रहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा का जो स्वभाव है, वही सिद्ध-परमात्मा का स्वभाव है, इस सिद्धान्त को हृदयंगम करके जो दृढ़ विश्वास कर लेता है कि अपना (आत्मा) शुद्ध स्वभाव ही मेरे लिए उपादेय है, वह साधक भविष्य में आत्म-स्वभाव में स्थिर होकर परमात्मभाव को प्राप्त कर लेता है। परमात्मभाव की प्राप्ति का अर्थ है-मोक्ष-प्राप्ति।' - १. (क) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४०३-४०४ (ख) आकाररहितं शुद्धं, स्व-स्वरूपे व्यवस्थितम्। सिद्धमष्टगुणोपेतं निर्विकारं निरंजनम्॥२०॥ तत्समं तु निजात्मानं, यो जानाति स पण्डितः। सहजानन्द-चैतन्यं, प्रकाशयति महीयसे॥२१॥ -परमानन्द पंचविंशति २०-२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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