________________
* १४६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
बहिरात्मा ही परभावों-विभावों को अपने मानकर कर्मबन्ध करता है, अन्तरात्मा नहीं ___ अज्ञानी और बहिरात्मा जीव इस तत्त्व को भूलकर शरीरादि परभावों और राग-द्वेषादि विभावों (विकारों) को अपने मानता है, इसी कारण कर्मबन्ध होते हैं और उसे संसार-परिभ्रमण करना पड़ता है। ज्ञानी आत्मार्थी मुमुक्षु अपने परिपूर्ण आत्म-स्वभाव को पहचानकर उसके आश्रय से सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष या परमात्मपद को पाने की साधना करता है और एक दिन संसार-सागर को पार करके जन्म-मरण का अन्त कर देता है, कर्मों से सर्वथा मुक्ति पा लेता है। अतः शक्ति (लब्धि) रूप से आत्मा ही परमात्मा है। इसकी प्रतीति करके स्वयं अभिव्यक्ति (प्रकट) रूप से भी परमात्मा बन सकता है। वह यह भलीभाँति हृदयंगम कर लेता है कि परमात्म-दशा को अभिव्यक्त (प्रकट) करने का अवसर इस मनुष्य-जन्म में, मनुष्य-शरीर में ही है। फिर वह आत्मा के प्रति रुचि और उत्सुकतापूर्वक सत्पुरुषों के समागम से, सुशास्त्रों के स्वाध्याय से, आत्म-ध्यान-चिन्तन से आत्मा के उक्त प्ररमात्म-सम शुद्ध स्वभाव की पहचान कर लेता है-मैं सिद्ध-परमात्मा के समान शुद्ध, पवित्र, निर्मल, निष्कलंक कर्ममलरहित, ज्ञानानन्द से परिपूर्ण हूँ। जो भी विकारी भाव (राग-द्वेषादि तथा काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विभाव) हैं, वे मेरे नहीं हैं, वे मेरे स्वरूप से भिन्न हैं, मेरे स्वभाव नहीं हैं।' सिद्ध-परमात्मा में और मेरी (शुद्ध) आत्मा में . कोई अन्तर नहीं है, ऐसा विश्वास करें
जिसके ज्ञान में, मन-बुद्धि-चित्त-हृदयरूप अन्तःकरण के कण-कण में ऐसी दृढ श्रद्धा, आत्म-विश्वास, दृढ़ प्रतीति, तीव्र रुचि, तड़फन और भावोर्मियाँ प्रादुर्भूत हो जाती हैं कि मैं अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आत्मानन्द और अनन्त आत्म-शक्तिरूप अनन्त गुणों से सम्पन्न स्वाभाविक तत्त्व (आत्म-द्रव्य) हूँ, क्योंकि मैं सिद्ध-परमात्मा की जाति का हूँ। वे अनन्त ज्ञानादि के रसकन्द हैं, वैसा ही मैं हूँ। 'आचारांगसूत्र' के अनुसार जैसे सिद्ध-परमात्मा में किसी उपाधि का अंश नहीं है, वैसे मैं भी शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से उपाधि से रहित हूँ, क्योंकि उपाधि कर्म से होती है। जैसे सिद्ध-परमात्मा के संकल्प-विकल्प या रागादिक कोई उपाधि नहीं होती, वैसे मेरे (शुद्ध आत्मा के) भी कोई उपाधि या प्रपंच नहीं है।
१. 'पानी में मीन पियासी से भाव ग्रहण, पृ. ४०२-४०३ २. उवाही पासगम्स नत्थि। ३. कम्मुणा उवाही जायइ।
-आचारांग, श्रु.१
-वही, श्रु.१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org