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________________ * परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १४५ * अथवा आत्मा परमात्मा हो सकता है अथवा आत्मा में परमात्मा बनने की योग्यता है। कहा भी है-“सिद्धस्य स्वभावो यः, सैव साधक-योग्यता।''-जो सिद्ध परमात्मा का स्वभाव है, वही स्वभाव प्रकट करने की योग्यता साधक की आत्मा में है।"२ स्वभाव में साम्य होने से ही आत्मा परमात्मा बन सकती है जैसे-मिट्टी और घड़े के स्वभाव में समानता है, इसीलिए तो मिट्टी से घड़ा बनता है। घट और तन्तु में, पट और मिट्टी के स्वभाव में साम्य नहीं है, इस कारण तन्तु से घट या मिट्टी से पट नहीं बन सकता है। इसी प्रकार शरीर आदि परभावों के स्वभाव से परमात्म-स्वभाव में बहुत अन्तर है, जबकि सच्चिदानन्दघनरूप शुद्ध आत्मा और परमात्मा के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं। जो परमात्मा का स्वभाव है, वही शुद्ध आत्मा का स्वभाव है। इसीलिए ‘प्रवचनसार' में आत्मा के द्वारा निश्चयदृष्टि से स्वरूप-स्वभाव का कथन इस प्रकार किया गया है-“सिद्धोऽहं शुद्धोऽहं अणंतणाणादि-गुण-समिद्धोऽहं।"३ अर्थात् मैं सिद्ध-परमात्मा हूँ, अनन्त ज्ञानादि गुणों से समृद्ध हूँ और शुद्ध (निर्विकार-निर्विकल्प, परभावों-विभावों से रहित, कर्ममलरहित) आत्मा हूँ।". ___.. प्रत्येक आत्मा परमात्मस्वरूप है, विभिन्नता या अपूर्णता उसका शुद्ध स्वभाव नहीं है वास्तव में प्रत्येक आत्मा परमात्मा के समान सच्चिदानन्दमूर्ति है, शुद्ध है, पवित्र है, निर्विकार है, ज्ञान, आनन्द और शक्ति से परिपूर्ण है। संसारी आत्माओं में बाह्य रूप से शरीरादि में तथा वर्तमान स्थिति में अन्तर दिखाई देता है, परन्तु अन्तर्मुखी दृष्टि से देखा जाए तो समस्त आत्माएँ मूल स्वभाव में परमात्मा हैं। अपूर्णता या विभिन्नता आत्मा का शुद्ध = मूल स्वरूप नहीं है। जैसे-एक जगह सोने की १00 पाट हैं, उन पर विभिन्न प्रकार के वस्त्र लपेटे हुए हैं। किन्तु उनके भीतर सोना तो एक समान ही है। इसी प्रकार प्रत्येक आत्मा भिन्न-भिन्न चैतन्य-पिण्ड है। बाहर से छोटा-बड़ा या वर्तमान काल की क्षणभंगुर अवस्था में अपूर्णता है, उसे लक्ष्य में न लेकर आत्मा को त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव की दृष्टि से देखें, तो प्रत्येक आत्मा का स्वभाव, मोक्ष-प्राप्त सिद्ध-परमात्मा के समान परिपूर्ण है। जितनी शक्ति सिद्ध-परमात्मा में है, उतनी ही शक्ति प्रत्येक आत्मा में है। १. 'पानी में मीन पियासी' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ४०१ २. अध्ययनसार ३. प्रवचनसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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