SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * १४० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * भक्ति-उपासना करके अपने शुद्ध धर्म का उत्कृष्ट एवं शुद्ध आचरण कर सकती हैं, सम्यग्ज्ञानादि की साधना द्वारा उत्तरोत्तर आत्म-विकास करके सर्वकर्ममुक्ति तथा स्वरूप-रमणता प्राप्त कर सकती हैं। सिद्ध या अरिहंत परमात्मा के वन्दनादि से ध्येय तक कैसे पहुँच सकता है ? अब प्रश्न यह है कि सिद्ध-परमात्मा तथा अरिहंत परमात्मा का नमन-वन्दन, उनका नाम-स्मरण, गुण- स्मरण, भक्ति आदि करने से कोई व्यक्ति कैसे आदर्श, ध्येय (मोक्ष) या परमात्मपद तक पहुँच सकता है ? इसका समाधान यह है कि वीतराग सिद्ध या जीवन्मुक्त परमात्मा किसी के लिए कुछ करते-कराते नहीं, न ही मोक्ष, स्वर्गादि कुछ देते-लेते हैं। लेकिन भक्ति, स्तुति या वन्दना आदि करने से व्यक्ति अवश्य ही सर्वोत्तम आध्यात्मिक गुणों से सम्पन्न आराध्यदेवों के उन गुणों की ओर आकृष्ट - तल्लीन होता है, स्वयं वैसा बनने का मनोरथ करता है। फलतः धीरे-धीरे उपास्य के आदर्शों को जीवन में उतारने लगता है। मनुष्य का हृदय यदि . कल्याणकामी या मोक्षकामी हो, परमात्मा या मोक्ष के अभिमुख होकर परमात्मा की भक्ति-स्तुति गुण-स्मरण में तल्लीनता, तन्मयता करे तो, सत्त्व-संशुद्धि और वीतरागता प्राप्त हो जाने से एक दिन उसकी अपूर्णता पूर्णता में परिणत हो जाती है, मोक्षमार्ग पर चलने के अपने ही प्रबल पुरुषार्थ से। वीतराग प्रभु शीघ्र कर्ममुक्ति कर सकता है को ध्येय बनाने वाला ध्याता ध्यान- बल से “यद् ध्यायति, तद् भवति" (जो जिसका ध्यान करता है, वैसा ही बन जाता है) की सूक्ति के अनुसार जब ध्याता उस परम शुभ्र परमोज्ज्वल सिद्ध-परमात्मा के प्रति एकाग्र एकनिष्ठ होकर अन्य पदार्थों से ध्यान व दृष्टि हटाकर ध्यान करता है, तो वह उसके हृदयकपाटों को खोल देगा, उसके हृदय पर ऐसी प्रतिक्रिया होगी कि उसकी राग-द्वेष-मोह की ग्रन्थियाँ टूटती जायेंगी, ध्येय तत्त्व की शुद्धता का प्रकाश उस ( ध्याता) पर पड़ने लगेगा। ध्येय के अनुसार ध्याता भी उसी रूप में परिणत होने लगता है। यह निर्विवाद है कि ध्यान का विषय वीतराग मुक्त परमात्मा का होगा, तो मन पर उसका भी वैसा ही असर पड़ेगा और वैसे ही गुण प्रायः उस ध्याता में प्रगट होने लगते हैं। वीतराग प्रभु को ध्येय बनाने वाला ध्याता भी समता, वीतरागता रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग एवं उत्तम ध्यान में आत्मा को या चित्तवृत्ति को लगाने का पुरुषार्थ करता है तो उसके आत्म-प्रदेशों से पुरातन कर्म-वर्गणाएँ भी स्वतः दूर होने लगती हैं । ' १. 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १०९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy