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________________ * विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा: स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १३९ * (अपनी सृष्टि के) कर्तृत्ववाद की योजना करता है जैसा कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है (निश्चयतः) आत्मा (अनन्त ज्ञानादि) परम ऐश्वर्य से युक्त है। अतः वही ईश्वर है और वही कर्ता (अपने शुभ-अशुभ कर्मों का स्वयं कर्ता) है। इस दृष्टि से जैनदर्शन ने आत्मा में निर्दृष्ट कर्तृत्ववाद की व्यवस्था (योजना) की है।" सिद्ध-मुक्त परमात्मा के स्मरण-नमन-उपासनादि से क्या लाभ ? अन्य दशनी जैनदर्शन के समक्ष यह शंका प्रस्तुत करते हैं कि जैनदर्शन जब संसार की समस्त आत्माओं को ईश्वर मानता है, तब तो सभी आत्माएँ स्वतः अनन्त ज्ञान-दर्शनादि से प्रकाशमान हैं, फिर उन आत्माओं को, खासकर मनुष्यों को सिद्ध-परमात्मा या अरिहंत देवाधिदेव को स्मरण करने, नमन करने, उनका ध्यान करने और उनकी भक्ति-उपासना करने की क्या आवश्यकता है? __ इसका समाधान यह है कि निश्चयनय या आत्मा के शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से तो यह कथन यथार्थ है कि संसार की सभी आत्माएँ अपने शुद्ध रूप में ज्ञानादि से प्रकाशमान हैं। किन्तु उनके आत्म-प्रदेशों पर विभिन्न कर्मों (कर्म-संस्कारों) का न्यूनाधिक रूप में आवरण पड़ा हुआ है, इस कारण उसके ज्ञान-दर्शन आदि आच्छादित हैं, हो रहे हैं। उन विभिन्न पूर्वबद्ध कर्मों को क्षय करने के लिए उन सर्वकर्ममुक्त शुद्ध आत्माओं (सिद्ध-परमात्माओं) अथवा चार घातिकर्ममुक्त अरिहंत परमात्माओं को आदर्श मानकर उनका ध्यान, स्मरण, गुणगान, नमन, स्तवन करने उनकी भक्ति, आराधना, उपासना आदि विविध अनुष्ठान किये जाते हैं। बहिरात्मा और अन्तरात्मा द्वारा परमात्मा की उपासनादि से सर्वकर्ममुक्ति कैसे? जैनदर्शन ने संसार की समस्त आत्माओं को तीन भागों में वर्गीकृत किया हैबहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। परमात्मा वह निखालिस आत्मा है, जिसमें आत्मा मोह, राग, द्वेष, क्रोधादि कषायों आदि विभावों से रहित होकर तथा परभावों अथवा विभावों के कारण आत्मा पर लगी हुई कर्मरज सर्वथा दूर हो जाती है। पूर्वोक्त दोनों कक्षाओं की आत्माएँ कर्मबद्ध हैं, उन पर अभी कर्मरज लगी हुई है। अतः वे दोनों कोटि की आत्माएँ परमात्मा (शुद्ध आत्मा) को अपना ध्येय या आदर्श मानकर उनकी वन्दना-नमन करके, उनका गुण-स्मरण, स्तवन, १. पारमेश्वर्य-युक्तत्वात्, आत्मैव मत ईश्वरः। स च कर्तेति निर्दोषं, कर्तृवादो व्यवस्थितः॥ -शास्त्रवार्ता समुच्चय, स्तबक ३, श्लो. १४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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