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________________ * विदेह मुक्त सिद्ध- परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १४१ * - सिद्ध-परमात्मा के भावसान्निध्य से अनेक लाभ सिद्ध-परमात्मा चाहे हमें चर्मचक्षुओं से दिखाई न दें फिर भी यदि उनके स्वरूप का अपने स्वच्छ अन्तःकरण में चिन्तन-मनन किया जाये, उनका मानसिक रूप से सान्निध्य या सन्निकट भाव प्राप्त किया जाये तो मनुष्य को दृष्टि - विशुद्धि, म-शक्ति एवं वीतरागता की प्रेरणा आदि अनेकों लाभ हैं। ये लाभ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। आत्म परमात्मा की आज्ञाराधना से और विराधना से अपना ही लाभ, अपनी ही हानि जो व्यक्ति वीतराग देव या सिद्ध-मुक्त परमात्मा को न मानने या अवलम्बन या सान्निध्य ग्रहण न करने से उनको कोई हानि-लाभ नहीं है, हमारी अपनी ही हानि है, आध्यात्मिक और धार्मिक विकास में क्षति है। इसके विपरीत उनको मानने तथा उनका अवलम्बन या सान्निध्य ग्रहण करने से, उनकी उपासना-आराधना से हमारी अपनी ही धर्मसाधना, धर्मभावना और आत्म-विशुद्धि का तथा सद्गुणों का विकास होता है। इन सबके अनुपात में हमारे कर्म (भाग्य) पर भी प्रभाव पड़ता है । हमारे जो अशुभ कर्म (दुर्भाग्य) हैं, उन्हें शुभ कर्म (सौभाग्य) में परिणत करने का अथवा अशुभ कर्मों को शुभ भावों द्वारा क्षय करने का इससे बढ़कर सरल सर्वोत्तम • राजमार्ग और क्या हो सकता है ? इसी तरह जो व्यक्ति वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा की धर्मानुप्राणित आज्ञाओं को न मानकर निरंकुश धर्म-विरुद्ध या वीतराग - आज्ञाविरुद्ध प्रवृत्ति करता है, यद्यपि उस पर प्रभु शाप नहीं बरसाते और न ही उसे रोकते हैं, किन्तु भगवदाज्ञा- विरुद्ध प्रवृत्ति करने से उसकी बहुत बड़ी हानि है - अनन्त काल तक संसार - परिभ्रमण । इसके विरुद्ध उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने से आराधक जीव सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आचार्य हेमचन्द्र ने 'वीतरागस्तव' में कहा है- "हे वीतराग प्रभो ! आपकी सेवाभक्ति क्या है ? आपकी आज्ञाओं का परिपालन ही आपकी सेवाभक्ति है। क्योंकि आपकी आज्ञाओं की आराधना मोक्षदायिनी और आज्ञाविराधना है - भवभ्रमणकारिणी ।' 9 Jain Education International वीतराग के ध्यान से रागरहित कर्ममुक्त तथा सराग के ध्यान से रागादि विभावयुक्त जिन्होंने पूर्ण परमात्मपद या मोक्ष प्राप्त कर लिया है, वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त परमात्मा जिस मनुष्य के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय हैं, उनकी वीतरागता के १. वीतराग ! तव सपर्यास्तवाज्ञा-परिपालनम्। आज्ञाराद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च ॥ For Personal & Private Use Only - वीतरागस्तव १९/४ www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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