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* १३६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
परमैश्वर्य-सम्पन्न ईश्वर जन्म से ही ईश्वर नहीं हो जाता, या वह सदा से ही अजन्मा है, उसे कोई साधना करने की या सम्यग्ज्ञानादि के लिए या कर्मक्षय के लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं है, इस अयुक्तिसंगत तर्क का खण्डन हों जाता है। जो भी पूर्वोक्त प्रकार का ईश्वर बनता है, वह एक जन्म या अनेक जन्मों के स्व-पुरुषार्थ से ही ईश्वर बनता है। हाँ, ईश्वर बनने के बाद वह अजन्मा (जन्म-मरण से रहित ) हो जाता है, पहले नहीं। इसलिए वह ईश्वर 'स्वयंभू' होता है (स्वयं जन्म ले लेता है या स्वयं हो जाता है) यह कथन भी किसी तरह - युक्तिसंगत नहीं है । '
परमैश्वर्य-सम्पन्नता समस्त सिद्ध-मुक्त ईश्वरों में एक समान, सभी समान कोटि के हैं
एक बात और-वैदिकादि धर्ममान्य ईश्वर एक है, वह सृष्टिकर्त्ता और महान् है, जैनधर्ममान्य अनन्त सिद्ध ईश्वर अकर्त्ता और अमहान् हैं; वे उसी महान् ईश्वर में विलीन हो जाते हैं, ऐसी स्वरूप और कार्य (परिणाम) की भिन्नता निरुपाधिक दशा (कर्मोपाधिरहित अवस्था में कतई नहीं हो सकती। ऐसा निर्हेतुक भेद दोनों में कैसे हो सकता है ? सिद्ध ईश्वरदशा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द (अनन्त अव्याबाध-सुख) और अनन्त बलवीर्य (अनन्त आत्मिक-शक्ति); ये चारों मिलकर सिद्ध-मुक्त शुद्ध आत्मा (परमात्मा) का स्वरूप अथवा परम ऐश्वर्य हैं। यह सभी सिद्ध आत्माओं (सिद्ध ईश्वरों) में समान होता है।
मुक्तात्मा न किसी दूसरी शक्ति में विलीन होते हैं, न किसी के अंश होते हैं
कतिपय दार्शनिक (वेदान्तदर्शनवादी) आत्मा का परमात्मा में विलय होना मानते हैं अथवा जीवात्मा को परमात्मा (परब्रह्म ) का अंश रूप मानते हैं; परन्तु जैनदर्शन इन दोनों बातों को स्वीकार नहीं करता । वह मानता है कि सिद्ध- मुक्तदशा में आत्मा का किसी दूसरी शक्ति या पूर्वमुक्त सिद्ध-परमात्मा या तथाकथित ईश्वर आदि में विलय नहीं होता, न ही वह किसी दूसरी सत्ता का अंश या अवयव है या होता है और न विभिन्न अवयवों का संघात है। प्रत्येक मुक्तात्मा एक स्वतंत्र इकाई
१. (क) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १९७
(ख) देखें - इसी निबन्ध में सर्वकर्ममुक्त (सिद्ध) होने वाले साधकों की ४ श्रेणियों वाला पुरुषार्थविषयक विवरण
(ग) निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकायाः । द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुख-दुःख संज्ञैर्वाच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥
- भगवद्गीता, अ. १५, श्लो. ५
२. 'जैनदर्शन : मनन और मीमांसा' से भाव ग्रहण, पृ, ४४७-४४८
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