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________________ * विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १३५ * मुक्त ईश्वर कहलाते हैं। इन दोनों के सिवाय जो अभी आठों ही कर्मों से न्यूनाधिकरूप से युक्त हैं, उनमें से कतिपय साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, सद्गृहस्थ नर-नारी आदि संवर से नवीन कर्मों का निरोध और निर्जरा से पुराने कर्मों का क्षय करने के लिए प्रयत्नशील हैं, ऐसे चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के नर-नारी कर्ममुक्ति के लिए पुरुषार्थ करते हैं, फिर भी वे अभी तक कर्मबद्ध हैं। मगर अधिकांश प्राणी ऐसे भी हैं, जो मिथ्यात्वादि कारणों से कर्मबन्ध से अधिकांश रूप से बद्ध हैं, ऐसे सभी कोटि के संसारस्थ जीव बद्ध ईश्वर की कोटि में आते हैं। इसलिए वैदिकादि धर्मों द्वारा मान्य ईश्वर एक ही है, वैसे जैनधर्म मान्य सिद्ध कोटि के ईश्वर समकक्ष हैं और एक नहीं, अनन्त हैं। वर्तमान में भी जो अर्हद्दशा प्राप्त हैं, सामान्यकेवली या तीर्थंकर कोटि के सदेहमुक्त (जीवन्मुक्त) ईश्वर हैं; वे भविष्य में सिद्ध कोटि के विदेहमुक्त ईश्वर अवश्य बनेंगे। जो चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के बद्ध कोटि के ईश्वर हैं, वे भी मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करके एक दिन वीतराग अर्हद्दशा प्राप्त केवलज्ञानी तथा मुक्त कोटि के ईश्वर होकर भविष्य में सिद्ध कोटि के ईश्वर हो सकेंगे। इसलिए सिद्ध ईश्वर (सिद्ध मुक्तात्माएँ) अनन्त हैं, एक ही नहीं। अगर ईश्वर को एक ही माना जाये, तो ईश्वर-प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति के लिए किया गया पुरुषार्थ व्यर्थ हो जायेगा। . . सिद्ध ईश्वर के स्वरूप में कोई भेद नहीं - पहले बताया जा चुका है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप की जो विधिवत् भावपूर्वक आराधना-साधना करता है, वह संसार से, जन्म-मरणादि सर्व दुःखों से तथा समस्त कर्मों से सर्वथा मुक्त सिद्ध-परमात्मा (ईश्वर) बन सकता है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ‘भगवद्गीता' में भी कहा गया है-जो मान-मोह से रहित हैं, आसक्ति दोष पर विजय पा चुके हैं, सदैव अध्यात्मभाव में रत (स्थित) हैं, कामनाओं (कामों) से सर्वथा निवृत्त हैं, सुख-दुःखादि (प्रियता-अप्रियता आदि) द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त हैं और मोहमुक्त हैं, वे ज्ञानी अव्ययपद (परमात्मपद या मोक्ष) को प्राप्त होते हैं। जैनमान्य और वैदिकमान्य ईश्वर जन्म से ही अजन्मा नहीं, पुरुषार्थ से ही होता है इस प्रकार के जैनमान्य सिद्ध ईश्वर (परमात्मा) और वैदिकधर्ममान्य गीतोक्त मुक्त-सिद्ध ईश्वर के स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है। इन दोनों प्रकार के लक्षणों से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि ईश्वर या सिद्ध-परमात्मा कोटि का १. 'वल्लभप्रवचन, भा. ३' (प्रवक्ता : स्व. जैनाचार्य विजयवल्लभसूरि जी) से भावांश ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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