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________________ * विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १३७ * होता है, उसकी स्वतंत्र सत्ता होती है। उसके प्रत्येक आत्म-प्रदेश परस्पर अनुविद्ध हैं; इसलिए वह अखण्ड है। मुक्ति में उस मुक्तात्मा का पूर्ण शुद्ध रूप स्वतः सहज ही प्रकट होता है। मुक्त आत्माओं के विकास की स्थिति में भी कोई अन्तर नहीं होता। अविकास, अपूर्ण विकास अथवा स्वरूपावरण कर्मोपाधिजन्य होता है। पूर्ण मुक्त जीवन कर्मोपाधि से सर्वथा रहित होते हैं। मुक्त जीव के कर्मोपाधि मिटते ही स्वरूपावरण या अपूर्ण विकास सर्वथा समाप्त हो जाता है। फिर सभी मुक्त आत्माओं का विकास और स्वरूप समान कोटि का हो जाता है। इसलिए जैन-दार्शनिक मुक्त आत्मा का किसी शक्ति में विलीन होना नहीं मानते। समस्त मुक्त आत्माओं की स्वतंत्र सत्ता रहती है। मुक्त आत्माओं की जो पृथक्-पृथक् स्वतंत्र सत्ता है, वह उपाधिकृत नहीं है, सहज है। सत्ता का स्वातंत्र्य मोक्ष होने में या किसी भी पूर्णता की स्थिति में बाधक नहीं है। इसलिए किसी भी स्थिति में उन अनन्त सिद्ध-मुक्तात्माओं की स्वतंत्र सत्ता, स्वतंत्रता या स्वायत्तता में कोई भी आँच नहीं आती। मोक्ष में प्रत्येक मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध-सुख और अनन्त बलवीर्य से युक्त है। इस दृष्टि से उनमें कोई भेद (अन्तर) नहीं है। सब मुक्तात्माएँ अपने आप में पूर्ण हैं। इसलिए उन्हें किसी दूसरी शक्ति का आश्रय लेने या उसका अंश बनने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए मुक्तात्माओं में कोई भेद करना (आत्मिक दृष्टि से) सम्भव नहीं है। क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबोधित, बुद्धबोधित, ज्ञान, अल्पबहुत्व, अन्तर, अवगाहना आदि की अपेक्षा से मुक्ताओं में जो भेद (अन्तर) की कल्पना की गई है, वह सिर्फ व्यवहारनय की अपेक्षा से तथा मुक्त होने से पूर्व की अवस्था-विशेष की दृष्टि से की गई है। ___ सर्वकर्ममुक्त सिद्ध ईश्वर जगत् का कर्ता-हर्ता नहीं हो सकता : क्यों और कैसे ? सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-परमात्मा जगत् का कर्ता-हर्ता नहीं हो सकता, इसका निराकरण हम कर्मविज्ञान, भाग २, खण्ड ५ में कर चुके हैं, इसलिए पिष्टपेषण करना व्यर्थ होगा। फिर तात्त्विक दृष्टि से सोचा जाये तो भी ईश्वर पर सृष्टिकर्तृत्व का आरोप करना कथमपि उचित नहीं है, क्योंकि आत्मा जब तक सोपाधिक (शरीर और कर्म की उपाधि से युक्त अष्ट कर्मबद्ध) होती है, तभी तक उसमें परभाव-कर्तृत्व होता है। सिद्ध-मुक्त दशा निरुपाधिक है। उसमें केवल स्वभावरमणता होती है, परभाव-कर्तृत्व नहीं होता। इसलिए सिद्ध-मुक्त ईश्वर में परभाव-कर्तृत्व (सृष्टि-कर्तृत्व) का आरोप करना युक्ति विरुद्ध है।' १. (क) “जैनदर्शन : मनन और मीमांसा से भाव ग्रहण, पृ. ४४७-४४८ (ख) देखें-कर्मविज्ञान, भा. २, खण्ड ५ में 'कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन तथा कर्मों का फलदाता कौन?' शीर्षक निबन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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