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________________ * विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १२७ * (१७-१८) मोहनीयकर्म की दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों प्रकृतियों का क्षय हो जाने से दो गुणों से युक्त सिद्ध-परमात्मा क्षायिक सम्यक्त्व के धारक हो जाते हैं। (१९-२२) आयुष्यकर्म की चारों प्रकृतियों (नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु) के क्षय हो जाने से चार गुणों से युक्त सिद्ध-प्रभु तिरायु, शाश्वत एवं अव्यय कहलाते हैं। (२३-२४) नामकर्म की शुभ नाम और अशुभ नाम, दोनों प्रकृतियों के क्षय हो जाने से दो गुणों से युक्त सिद्ध भगवान अमूर्तिक अरूपी हो चुके हैं तथा अनादि, अनन्तरूप नामसंज्ञा से, यानी अनन्त गुणों की अपेक्षा से अनन्त संज्ञा से अभिहित हैं। (२५-२६) गोत्रकर्म की दोनों प्रकृतियों (उच्चगोत्र-नीचगोत्र) के न रहने से सिद्ध भगवान की उच्च-नीच दशा समाप्त हो गई और दो गुणों से युक्त हो अगुरुलघुत्व गुण से सम्पन्न हो गये। (२७-३१) अन्तरायकर्म की पाँचों प्रकृतियों (दान-लाभ-भोग-उपभोगवीर्यान्तराय) से युक्त वीर्यान्तराय कर्म के क्षय हो जाने से वे पाँचों अनन्त शक्तियाँ (लब्धियाँ) सिद्ध भगवान में प्रादुर्भूत हो गईं। इस कारण सिद्ध-परमात्मा अनन्त शक्तिमान् कहलाते हैं। - सिद्धि (सर्वकर्ममुक्ति) के विषय में जैनधर्म की उदारता जैनदर्शन के अनुसार कोई भी मनुष्य, चाहे वह गृहस्थ हो या साधु-संन्यासी, चाहे उसकी दार्शनिक मान्यताएँ या क्रियाकाण्ड जैनधर्म या जैन-सम्प्रदाय के अनुसार हो अथवा अन्य धर्म (तीर्थ), संघ या सम्प्रदाय के अनुसार हो, वह भी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकता है, बशर्ते कि वह कषायों से सर्वथा मुक्त हो जाये अथवा राग-द्वेष, मोह, ईर्ष्या, आसक्ति, द्रोह, दम्भ, निदानशल्य, मिथ्यादर्शन आदि से सर्वथा छुटकारा पा ले। भगवान राम, हनुमान जी, पाँचों पाण्डव आदि को भी जैनधर्म के इतिहास में विदेहमुक्त सिद्ध-परमात्मा माना गया है। जैनधर्म वेशपूजक या क्रियाकाण्डपूजक नहीं है, न ही वह केवल व्यक्तिपूजक है। अपितु गुणपूजक अवश्य है। उसका यह दावा नहीं है कि जैनधर्म या जैनसम्प्रदाय में साधुधर्म में दीक्षित होने वाले अथवा उसके अनुयायी बनने वाले नर-नारी ही मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। न ही जैनधर्म की यह संकीर्ण विचारधारा है कि उसकी जैसी ही मान्यता, क्रियाकाण्ड या वेशभूषा आदि वाले व्यक्ति ही मुक्त या सिद्ध हो सकते हैं, अन्य धर्म-सम्प्रदायीय मान्यता, वेशभूषा या क्रियाकाण्ड आदि १. एकतीसं सिद्धाइगुणा पण्णत्ता, तं.-खीणे खीणे वीरिअंतराए। -समवायांगसूत्र, समवाय ३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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