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________________ * १२६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * सिद्ध-परमात्मा में प्रादुर्भूत होने वाले इकतीस गुणों का विवरण यद्यपि सिद्ध-परमात्मा में अनन्त गुण होते हैं, तथापि ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की उत्तर-प्रकृतियों के क्षय की अपेक्षा से उनमें इकतीस गुण विशेष रूप से आविर्भूत हो जाते हैं। वस्तुतः शुद्ध आत्मा ज्ञानस्वरूप और अनन्त गुणों के समुदाय रूप है, परन्तु संसारी आत्माओं के वे गुण कर्मजन्य उपाधिभेद से आवृत, सुषुप्त, कुण्ठित एवं दूषित हो रहे हैं, जबकि सिद्ध-परमात्मा उन आठ ही कर्मों को सभी भेदों सहित निर्मूल कर देते हैं, इसलिए उनमें अष्टविध कर्मों के क्षय से आठ तथा उत्तर-प्रकृतियों सहित क्षय हो जाने से इकतीस गुण पूर्णतया प्रकट हो जाते हैं। जैसे सूर्य सहन किरणों से प्रकाशमान होने पर भी बादलों से आच्छादित हो जाने पर उसका प्रकाश आवृत हो जाने से दिखाई नहीं देता। उसी प्रकार आत्मा भी (निश्चयदृष्टि से) ज्ञानादि गुणों से परिपूर्ण प्रकाशमान है, परन्तु कर्मरूप आवरण आ जाने से वे गुण दिखाई नहीं देते। सिद्ध-परमात्मा अपनी आत्मा पर छाये हुए कर्मावरणों को दूर कर देते हैं, अतएव वे गुण उनमें पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो उठते हैं। फिर उस शुद्ध आत्मा को सिद्ध-बुद्ध, अजर, अमर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त शक्तिमान् इत्यादि शुभ नामों से पुकारा जाता है। वे आविर्भूत होने वाले इकतीस गुण ‘समवायांगसूत्र' में इस प्रकार उल्लिखित हैं (१-५) (१) सिद्ध-परमात्मा के आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के अट्ठाईस भेदों पर आये हुए आवरणों का, (२) श्रुतज्ञान के चौदह भेदों पर आये हुए आवरणों का, (३) अवधिज्ञान के छह भेदों पर आये हुए आवरणों का, (४) मनःपर्यायज्ञान के दो भेदों पर आये हुए आवरणों का, एवं (५) केवलज्ञान के केवल एक भेद पर आये हुए आवरण का भी क्षय हो चुका है। अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचों प्रकृतियों के आवरण दूर हो जाने से सिद्ध भगवान पंचगुणयुक्त केवलज्ञानी और सर्वज्ञ कहलाते हैं। (६-१४) [१-४] चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन पर आये हुए आवरण का क्षय हो चुका है। [५-९] निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानर्द्धि, ऐसी पंचविध निद्रारूप अवस्था भी सिद्ध-प्रभु की समाप्त हो चुकी। इस प्रकार दर्शनावरण की नौ उत्तर-प्रकृतियों का क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान नौ गुण युक्त अनन्त (केवल) दर्शी-सर्वदर्शी कहलाते हैं। (१५-१६) सिद्ध भगवान के वेदनीयकर्म की सातावेदनीय-असातावेदनीयरूप दोनों प्रकृतियाँ क्षीण हो चुकी हैं, इसलिए वे दो गुणों से युक्त अक्षय, अव्यावाध, अनन्त आत्मिक-सुख (निजानन्द) में मग्न हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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