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* विदेह मुक्त सिद्ध- परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १२५ *
के द्वारा होने वाली या सांसारिक सुख-दुःख से होने वाली अनुभूति उन्हें नहीं होती। न उनमें अब जन्म-मरण आदि की पर्याय होती है और न ही शरीर के विभिन्न रूपों की पर्याय होती है और न उनमें गुरुलघुभाव होते हैं । '
इन आठ विशिष्ट आध्यात्मिक गुणों से सिद्ध-मुक्त आत्माओं को सम्यक् रूप से परखा जा सकता है।
सिद्ध भगवान में ये आठ गुण गुणस्थान क्रम से कैसे-कैसे प्रगट होते हैं ?
इन आठ आध्यात्मिक गुणों से मुक्तात्मा किस-किस क्रम से कैसे-कैसे सम्पन्न होते हैं? इसके लिए जैनदर्शन ने गुणस्थान - क्रमारोह बताया है। संक्षेप में, मुक्ताओं का विकास-क्रम इस प्रकार है - चतुर्थ गुणस्थान से दृष्टि यथार्थ बनती है। आत्म-विकास का क्रम शुरू होता है । सम्यक्त्व की प्राप्ति ही आत्म- जागृति का पहला सोपान है। इसमें आत्मा अपने स्वरूप को 'स्व' तथा बाह्य पदार्थों को 'पर' जान ही नहीं लेती, उसकी श्रद्धा भी तदनुरूप दृढ़ हो जाती है। इस दशा वाली आत्मा को अन्तरात्मा, सम्यक्त्वी या सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इससे पहले के तीन गुणस्थानदशा वाली आत्मा बहिरात्मा, मिथ्यात्वी या मिथ्यादृष्टि कहलाती है ।
इस अध्यात्म जागरण के पश्चात् पाँचवें, छठे गुणस्थान-सोपानों के माध्यम से आत्मा अपनी कर्ममुक्ति के लिए आगे बढ़ती है और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान के सहारे सम्यक् चारित्र का बल बढ़ाती है। ज्यों-ज्यों सम्यक्चारित्र और साथ में सम्यक्तप की शक्ति बढ़ती है, त्यों-त्यों कर्मवर्गणाओं का आकर्षण कम होता जाता है। द्रव्य-भावात्मक सम्यक्त्वादि पंचविध संवर से नई आती हुई और सकामनिर्जरा से प्राचीन बँधी हुई कर्मवर्गणाएँ शिथिल होती जाती हैं। सातवें से बारहवें गुणस्थान के सोपानों पर चढ़ते चढ़ते ऐसी विशुद्धि बढ़ती है कि आत्मा शरीरदशा में भी घातिकर्मावरण से रहित हो जाती है। चार आत्मिक- गुण (अनन्त ज्ञानादि) तो पूर्णतया प्रकट हो जाते हैं, बारहवें -तेरहवें गुणस्थान में। अर्थात् ज्ञान, दर्शन, वीतरागभाव (यथाख्यातचारित्र) एवं आत्म-शक्ति का परिपूर्ण, निराबाध, अप्रतिहत तथा बाह्य पदार्थों से अप्रभावित विकास हो जाता है। ऐसी स्थिति में भव या आयुष्य को टिकाये रखने वाली चार भवोपग्राही कर्मवर्गणाएँ जो बाकी रही थीं, वे भी अन्त में चौदहवें गुणस्थान में टूट जाती हैं और वह आत्मा पूर्ण सिद्ध-बुद्ध-मुक्त तथा बाह्य प्रभावों से सर्वथा रहित एवं सर्वकर्म बन्धनों से मुक्त परमात्मा बन जाती है।
१. 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. ९९, १०९
२. 'जैनदर्शन : मनन और मीमांसा' से भाव ग्रहण, पृ. २२७
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