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________________ * २४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * सकता है। दोनों का उपादान अपना-अपना होते हुए भी निमित्त बदल सकता है। निमित्त की सीमा में दोनों एक-दूसरे से उपकृत एवं प्रभावित होते हैं। आत्मा के साथ कर्मबन्ध की प्रक्रिया को जानना आवश्यक आत्मा के साथ कर्मबन्ध की एक प्रक्रिया यह है-मिथ्यात्वादि पाँच आनव भावकर्म के स्रोत हैं। इनसे तीव्र-मन्द-मध्यम रूप से सम्बन्ध होने पर वे संवादी द्रव्यकर्मों को खींच लेते हैं। द्रव्यकर्म कार्मणशरीररूप होता है। इसे ही दूसरी तरह से समझें-सर्वप्रथम जीव में कषायात्मक या राग-द्वेषात्मक, भाव आए कि. भावकर्म से यह प्रभावित होता है। भावकर्म से फिर संवादी द्रव्यकर्म प्रभावित होते हैं। दोनों आत्मा को प्रभावित करते हैं। दोनों कर्मों की रासायनिक प्रक्रिया का सम्बन्ध हो जाने पर आत्मा और कर्म का बन्धमुक्त सम्बन्ध हो जाता है। भगवतीसूत्र में विशिष्ट कर्म की प्रक्रिया का अंकन संक्षेप में इस प्रकार हैजीव से कर्मशरीर, उससे स्थूलशरीर, फिर स्थूलशरीर से क्रियात्मक (वीर्य) शक्ति, उससे योगत्रय, योग से प्रमाद और प्रमाद से कर्म (बन्ध) यह कर्म का प्रक्रियात्मक रूप है। - इसी से गर्भित एक प्रक्रिया और है-आकाशमण्डल में भाषावर्गणा के पुद्गल व्याप्त हैं, वैसे ही कर्मवर्गणा के परमाणु भी ठसाठस भरे हुए हैं। जीव के मन में जब भी राग-द्वेष-कषायात्मक भाब आता है कि तुरन्त भावकर्म निर्मित हो जाता है, फिर वहाँ बैठे-बैठे ही समीपवर्ती कर्मप्रायोग्य पुद्गल-परमाणुओं को प्रभावित और आकर्षित कर लेता है। फिर वे कर्म-परमाणु जीव को अपने प्रभाव-क्षेत्र में ले लेते हैं-यानी बंधनबद्ध कर लेते हैं। कर्म-परमाणुओं की चतुष्प्रकारी स्वतःसंचालित प्रक्रिया ___कर्मबन्ध के बाद की भी कर्म-परमाणुओं की स्वतःसंचालित क्रिया-प्रक्रिया यह है कि जो कर्म-परमाणु जीव के साथ आकर्षित होकर बँध जाते हैं, फिर उनकी प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध, इन चार भागों में विभाजन = वर्गीकरण की व्यवस्था स्वतः हो जाती है। जैसे-भोजन का कौर पेट में डालने के बाद पचाने वाला रस चबाने से मिला, पाचन हुआ, पाचन क्रिया और रसायन क्रिया के बाद शरीर के सभी अंगों में फैलकर वह यथायोग्य मात्रा में पहुँचता है, इसी प्रकार कर्मबन्ध के बाद कर्म-परमाणुओं की उपर्युक्त चतुष्प्रकारी स्वतःसंचालित प्रक्रिया होती है। . शरीर में जैसे इन्द्रियाँ, बुद्धि, नन, चित्त, अहंकार (हृदय) अपने-अपने दायित्व-कर्मों (क्रियाओं) को स्वतः करते रहते हैं। श्वास की क्रिया स्वतः चलती रहती है। इसी प्रकार कर्मों की उपर्युक्त प्रक्रिया स्वतःसंचालित होती है। कर्म और नोकर्म के लक्षण, कार्य में अन्तर कई कर्म-तत्त्व से अनभिज्ञ लोग जिस प्रकार कर्म को बन्धनकारक, आत्म-गुणघातक, आत्म-शक्तिप्रतिबन्धक एवं आवश्यक समझते हैं, उसी प्रकार भ्रान्तिवश शरीर और शरीर से सम्बद्ध (नोकर्मरूप) सजीव-निर्जीव (पर) पदार्थों को भी बन्धनकारक आदि समझते हैं, परन्तु कर्म और नोकर्म में लक्षण और कार्य की दृष्टि से बहुत अन्तर है। गोम्मटसार में उक्त २३ प्रकार की पुद्गल (परमाणु) वर्गणा को 'धवला' में दो प्रकार में वर्गीकृत किया गया है-कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा। कार्मणवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और तेजसवर्गणा, ये चार कर्मवर्गणाएँ हैं, शेष १९ वर्गणाएँ नोकर्मवर्गणाएँ हैं। संक्षेप में पाँच प्रकार के शरीरों में से कार्मणशरीर कर्मरूप और शेष चार प्रकार के शरीर नोकर्मरूप हैं। इसका कारण यह है कि समस्त शरीरों की उत्पत्ति के मूल कारणभूत शरीर को कर्म और शेप शरीर कर्म तो नहीं हैं, किन्तु कर्म में सहायक होने से नोकर्म कहलाते हैं। अर्थात् कर्म के फल-प्रदान में या कर्म के उदय में सहायक तत्त्व हैं, इसलिए नोकर्म कहलाते हैं। नोकर्म को स्पष्ट रूप से बताते हए कर्मविज्ञान ने कहा-शरीर और शरीर से सम्बद्ध माता-पिता, परिवार, पत्नी, पुत्र, भाई, मित्र आदि सजीव तथा धन, मकान, जमीन, जायदाद आदि निर्जीव नोकर्म हैं। इनके भी दो प्रकार हैं-बद्ध नोकर्म और अबद्ध नोकर्म। जहाँ शरीर (चतुष्टय) हैं, वहाँ आत्मा है। ये दोनों परस्पर बद्ध हैं। इन्द्रियाँ, मन, वाणी आदि भी शरीर के ही अन्तर्गत हैं। ये सब बद्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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