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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * २५ * नोकर्म हैं तथा जो शरीर की तरह हर समय, हर क्षेत्र में साथ नहीं रहते, धन, मकान, परिवार आदि अबद्ध नोकर्म हैं। कर्म जिस प्रकार आत्मा को बन्धन में बाँधता है, वैसे दोनों प्रकार के नोकर्मों में आत्मा को बाँधने, बाधित करने, आत्म-गुणों या आत्म-शक्तियों का घात करने की शक्ति नहीं है। मतलब, ये नोकर्मद्वय अपने आप में बन्धनकारक नहीं हैं, इनके निपित्त से जिस प्राणी के मन में राग-द्वेष या कषाय होता है, तब कर्मबन्ध होता है, अगर इनके निमित्त से रागादि नहीं होते तो ये बन्धनकारक नहीं होते। स्थूल-सूक्ष्म जितने भी पंचभौतिक पदार्थ हैं, वे सब इसी स्थूलशरीर में गर्भित व सम्बद्ध होने से नोकर्म ही हैं। प्रज्ञापनासूत्र वृत्ति में नोकर्म को कर्मों के उदय और क्षयोपशम में सहायक सामग्रीरूप कारण बताया गया है। ऐसी नोकर्मरूप बाह्य सामग्री विविध द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के भेद से ५ प्रकार की है। इसी प्रकार भौगोलिकता, वातावरण, पर्यावरण. परिस्थितियाँ आदि सब क्षेत्रीय नोकर्म हैं। कर्म का कार्य रागादि भावों के कारण जीव को बन्धन में डालता है, कालान्तर में उदय में आकर सुख-दुःख का वेदन कराता है, किन्तु बाह्य सामग्रीरूप नोकर्म की ऐसी स्थिति नहीं है। अतः कर्म और नोकर्म के लक्षण और कार्य में मौलिक अन्तर है। कर्मविज्ञान ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव और स्थूलशरीर तथा शरीर से सावद्ध वस्तुओं को विविध उदाहरण देकर नोकर्म का स्वरूप समझाया है। कर्मफल प्रदान करने में तथा कर्म के क्षय एवं क्षयोपशम में नोकर्म (सामग्रीरूप) सहायक बन सकता है। वह स्वयं जीव को कर्मबद्ध नहीं करता, न ही उदय में आकर फल भुगवाता है, किन्तु सातावेदनीय या असातावेदनीय कर्म के उदय में आने पर नोकर्म रोगादि की उत्पत्ति, अहितकर भोजन, अरुचि, आलस्य, समभाव का अनभ्यास इत्यादि रूप में सहायता कर देता है। इतना ही नोकर्म का कार्य है। कर्म के साथ विकर्म और अकर्म को पहचानना आवश्यक कर्मविज्ञान द्वारा कर्म के विविध स्वरूप के रूपों का इतना निरूपण कर देने के बाद भी कर्मों की भीड़ में साधारण व्यक्ति ही नहीं, बड़े-बड़े विद्वान् भी कर्म और अकर्म को पहचानने में गलती कर बैठते हैं। कई दफा कर्म बाहर से अशुभ, अनिष्ट-सा लगता है, किन्तु भावना शुभ या शुद्ध होने पर भी स्थूलदृष्टि से देखने वाले अकर्म को कर्म समझ बैठते हैं। इसी प्रकार बाहर से निश्चेप्ट, अकर्मण्य एवं निष्क्रिय हो जाने को ही अकर्म मान लेते हैं। इस प्रकार की भ्रान्तियों का निराकरण करने के लिए कर्म और अकर्म की, तथैव कर्म (शुभ कर्म) और विकर्म (दुष्कर्म) की भी वास्तविक पहचान होना जरूरी है। जैन-कर्मविज्ञान ने तो इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला ही है, वैदिकधर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ भगवद्गीता, बौद्धदर्शन ने भी इन तीनों का सुन्दर विश्लेषण किया है। जब तक शरीर है, तब तक शरीरधारी को मन, वचन या काया से कोई न * कोई कर्म = क्रिया या प्रवृत्ति करनी ही पड़ती है। यदि सभी क्रियाएँ कर्म कहलाने लगें, तब तो कोई भी मनुष्य तो क्या, तीर्थंकर, वीतराग, केवलज्ञानी या अप्रमत्त निर्ग्रन्थ भी कर्म-परम्परा से मुक्त नहीं हो सकते, न ही कर्मबन्ध से बच सकते हैं, फिर तो कर्मरहित अवस्था एकमात्र सिद्ध-परमात्मा की माननी पड़ेगी। • जैन-कर्मविज्ञानविदों ने कहा-यद्यपि क्रियाओं से कर्म आते हैं, परन्तु वे सभी बन्धनकारक नहीं होते। जैनागमों में २५ क्रियाएँ बताई गई हैं। उनमें से कायिकी आदि २४ क्रियाएँ साम्परायिक हैं, यानी वे कषाय या राग-द्वेषादि से युक्त होती हैं, इसलिए कर्मबन्धकारक हैं और पच्चीसवीं ऐर्यापथिकी है जो विवेकयुक्त = यलाचार-परायण, अप्रमत्त संयमी या वीतरागी की गमनागमनादि या आहार-विहारादि चर्यारूप होती है। साथ ही वह क्रिया कषाय एवं रागादि आसक्ति से रहित होने से कर्मबन्धकारिणी नहीं होती। बन्धक और अबन्धक कर्म का आधार बाह्य क्रिया नहीं है, अपितु कर्ता के परिणाम, मनोभाव या विवेक-अविवेक आदि हैं। यदि कर्ता के परिणाम रागादियुक्त नहीं हैं. शारीरिक क्रियाएँ भी संयमी जीवन-यात्रार्थ अनिवार्य रूप से, मद, विषयासक्ति, असावधानी. विकथा. अयला व निन्दादि प्रमाद से रहित होकर की जाती है अथवा शारीरिक क्रियाओं से अतिरिक्त निरपेक्षभाव से स्व-पर-कल्याणार्थ प्रवृत्तियाँ की जाती हैं या कर्मक्षयार्थ सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की साधना, अप्रमत्तभाव से की जाती है, तो उससे होने वाले कर्म राग-द्वेष से रहित होने से बन्धनकारक नहीं होते। अतएव ऐसे कर्मों को अकर्म समझना चाहिए। भगवान महावीर ने प्रमाद को कर्म कहा है, अप्रमाद को अकर्म। तीर्थंकरों तथा वीतराग पुरुषों द्वारा होने वाली संघ-स्थापन आदि सभी लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियाँ अकर्म की कोटि में आती हैं। परन्तु कई दफा अकर्म (अबन्धक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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