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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * २३ *
निष्कर्ष यही है कि यद्यपि कर्म महाशक्तिरूप है, किन्तु जब आत्मा को अपनी अनन्त शक्तियों का भान हो जाता है और वह भेदविज्ञान का महान् अस्त्र हाथ में उठाकर तप-संयम में प्रबल पुरुषार्थ करता है, तो कर्म की उस प्रचण्ड शक्ति को परास्त कर सकता है। कर्म को अदृष्ट होने से क्यों माना जाए ? ___ कर्म के अस्तित्व के विषय में विस्तृत रूप से निरूपण करने के बावजूद भी कुछ दार्शनिक या भौतिकवादी तथा प्रत्यक्षवादी चार्वाक आदि कर्म का और कर्म के फल को प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर न होने से नहीं मानते, जबकि वे ही अमुक शब्द या मंत्र आदि अदृश्य होने पर भी उसके कार्य या प्रभाव को जानकर उसे तो प्रत्यक्षवत् मान लेते हैं। भगवान महावीर स्वामी के भावी गणधर अग्निभूति ने यही शंका उठाई थी कि कर्म अदृष्ट है, उस अदृष्टफल वाले कर्म को क्यों माना जाए? विजली अदृश्य (चक्षु-अगोचर) है, किन्तु उसके कार्य (पंखा, हीटर, कूलर, लाइट आदि) को सभी प्रत्यक्ष जानते-देखते हैं, इसलिए उनके मूल कारणरूप बिजली के प्रत्यक्ष न होते हुए भी वे मानते हैं। इसी प्रकार कर्म और कर्मबन्ध के अदृश्य होते हुए भी कर्मों के प्रत्यक्ष दृश्यमान-सुखी-दुःखी, मन्दबुद्धि-प्रखरबुद्धि, रोगी-निरोगी आदि शुभाशुभ फलरूप परिणामों को देखते हुए चर्मचक्षुओं से अदृश्य होते हुए भी कर्म और कर्मबन्ध को माने बिना कोई चारा नहीं है। कर्म मूर्त है, अमूर्त आत्मगुणरूप नहीं __ इतना होने पर कतिपय दार्शनिकों ने फिर शंका प्रस्तुत की-सुख-दुःख आदि अमूर्त हैं, वे कर्म के कार्य हैं, कर्म उनका कारण है, इस दृष्टि से कर्म को भी अमूर्त मानना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं है।
जैनदर्शन 'कर्म' को मूर्त मानता है, क्योंकि उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होने से वह पौद्गलिक है, रूपी है। अमूर्त में ये वर्णादि चारों गुण नहीं होते। मूर्त मूर्त ही रहता है, वह कदापि अमूर्त नहीं होता, तथैव अमूर्त भी कदापि मूर्त नहीं हो सकता। यद्यपि कर्म मूर्त होते हुए भी चतुःस्पर्शी पुद्गल होने से सूक्ष्म है, वह सम्मान्य व्यक्ति के चर्मनेत्रों से अदृश्य होता है। अनुकूल आहारादि के कारण सुखादि की तथा शस्त्र-प्रहार आदि से दुःखादि की अनुभूति होती है, वैसी अनुभूति अमूर्त में नहीं होती, मूर्त में ही वैसी अनुभूति चेतन के साथ सम्बद्ध होने से होती है। परिणाम की भिन्नता से भी आत्मा को अमूर्त और कर्म को मूर्त माना जाता है। कर्म के मूर्त कार्यों को देखकर भी उसका मूर्तत्व सिद्ध होता है। आप्तवचन (आगमप्रयाण) से भी कर्म का मूर्तरूप सिद्ध होता है। कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ संयोग-सम्बन्ध होने से आत्मा भी
औपचारिक रूप से व्यवहारदृष्टया कथंचित् मूर्त माना जाता है और बद्ध कर्मों के फलस्वरूप नाना गतियो में परिभ्रमण करता है, सुख-दुःखादिरूप फल का वेदन करता है। परन्तु अमूर्त आत्मा कभी मूर्त कर्मरूप नहीं हो जाता और न ही मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के रूप में परिणत होता है। दोनों स्वतंत्र हैं, एक-दूसरे को प्रभावित जरूर करते हैं और वियुक्त भी हो जाते हैं। यही कर्मविज्ञान का स्पष्ट प्ररूपण है। कर्म का प्रक्रियात्मक रूप ५. कर्म का अस्तित्व और मूर्तत्व जान लेने पर भी जब तक कर्म का सर्वांगीण प्रक्रियात्मक रूप नहीं जाना जाता, तब तक प्राचीन कर्मों का क्षय करने तथा नवीन कर्मों को रोकने का तथा समभाव में स्थित रहने का उपक्रम नहीं हो सकता। अतः कर्म की सर्वांगीण प्रक्रिया और कार्य-प्रणाली को जान लेना अत्यावश्यक है। अखण्ड, अमूर्त आकाश के साथ घट-पट आदि मूर्त पदार्थों के संयोग की तरह अमूर्त आत्मा के साथ भी मूर्त कर्मपुद्गलों का संयोग हो जाता है। यद्यपि आत्मा के साथ कर्मपदगलों का तादात्म्य-सम्बन्ध तो कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों के उपादान, गुण और स्वभाव में अन्तर है। आत्मा के चार उपादान हैं-ज्ञान, दर्शन (आत्मिक), सुख और शक्ति। ये आत्मा के मौलिक गुण हैं। चेतना उसका स्वभाव है। जबकि कर्म पौद्गलिक पदार्थ होने से वर्णादि चार उसके उपादान हैं, पूरण-गलन-सड़न उसके गुण हैं। अचेतन उसका स्वभाव है। दोनों एक-दूसरे के सहायक हो सकते हैं। निश्चयदृष्टि से आत्मा अमूर्त व चेतनामय है, परन्तु वर्तमान में संसारी आत्माएँ अमूर्तत्व प्रगट करने का लक्ष्य होते हुए भी व्यवहार में कथंचित् मूर्त है। इसलिए दोनों का संयोग-सम्बन्ध होने से मात्र संयोग-सम्बन्धकृत परिवर्तन हो
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