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________________ * १२२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * में जाते हैं। कर्मों के कारण आत्मा की ज्ञानादि शक्तियाँ दबी रहती हैं। मुक्त दशा उनका सर्वथा क्षय हो जाने से मुक्तात्माओं में आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता के सूचक मुख्य आठ आध्यात्मिक गुण प्रकट हो जाते हैं-(१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त अव्याबाध - सुख, (४) क्षायिक सम्यक्त्व, (५) अव्ययत्व (अक्षय स्थिति), (६) अमूर्तिक (अरूपित्व), (७) अगुरुलघुत्व, और (८) अनन्त बलवीर्यत्व (अनन्त आत्म-शक्ति ) । 'धवला' के अनुसार आठ कर्मों के क्षय से सिद्धों में उत्पन्न होने वाले नौ गुण इस प्रकार हैं - ( 9 ) अनन्त ज्ञान, . (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त सुख, (४) क्षायिक सम्यक्त्व, (५) अकषायत्वरूप चारित्र, (६) जन्म-मरणरहितता ( अवगाहनत्व), (७) अशरीरत्व (सूक्ष्मत्व), (८) उच्च-नीचरहितता (अगुरुलघुत्व), और (९) पंचक्षायिक लब्धि (अनन्त शक्ति क्षायिक दान- लाभ-भोग-उपभोग - वीर्य ) । 'भगवती आराधना' में छह आत्यन्तिक गुण बताये हैं-(१) अकषायत्व, (२) अवेदत्व, (३) अकारकत्व, (४) देहराहित्य, (५) अचलत्व, और (६) अलेपत्व। = किस कर्म के सर्वथा क्षय से कौन-सा गुण प्रकट होता है और उसकी क्या विशेषता है ? यह देखना चाहिए ( १ ) अनन्त ज्ञान - पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान में आत्मा का अभिन्न ज्ञान गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है, जिससे मुक्तात्मा सर्व द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव को जानने लगते हैं। इसी को केवलज्ञान तथा सर्वज्ञता कहते हैं। ( २ ) अनन्त दर्शन - नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से आत्मा का दर्शनगुण पूर्णतया प्रकट हो जाता है। इससे मुक्तात्मा सर्व- द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को देखने (सामान्य रूप से जानने) लगते हैं । यही केवलदर्शन है। (३) अनन्त अव्याबाध - सुख - दो प्रकार के वेदनीय कर्म के क्षय से उन्हें अव्यावा (जिसमें किसी प्रकार की बाधा - रुकावट न आये ऐसा अनन्त) सुख प्राप्त होता है | वेदनीय कर्म के उदय से आत्मा क्षणिक, भौतिक, वैषयिक नश्वर एवं काल्पनिक सुख तथा दुःख का अनुभव (वेदन) करता है। वास्तविक एवं स्थायी निराबाध आत्मिक-सुख की प्राप्ति तथा शारीरिक-मानसिक, आधिभौतिक, आधि दैविक, आध्यात्मिक आदि दुःखों का नाश, वेदनीय कर्म के सर्वथा क्षय से होता है; उन्हें किसी प्रकार की बाधा - पीड़ा नहीं होती | बल्कि अनन्त सिद्धों के आत्म-प्रदेश परस्पर अवगाहित ( सम्मिलित ) होना भी अव्याबाध- सुखोत्पादक होता * उनके आत्म-प्रदेश परस्पर अवगाढ़ (सम्मिलित ) हो जाने पर भी कोई बाधापीड़ा नहीं होती । यही अनन्त सुख की विशेषता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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