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________________ विदेह मुक्त सिद्ध- परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १२१ * - कर देते हैं। इसे द्योतित करने के लिए मुच्चंति के बाद परिनिव्वायंति (परिनिर्वाणयुक्त हो जाते हैं, परम सुखी हो जाते हैं) शब्द का प्रयोग किया गया है। 'परिनिव्वायंति' पद के प्रयोग द्वारा एक तो तथाकथित स्वर्गसम कर्मजन्य सुखवादी लोगों की उक्त मान्यता का निराकरण किया गया है। दूसरे - बौद्ध निर्वाण के समान जैनदर्शन निर्वाण को दीपक के बुझ जाने की तरह आत्मा को अस्तित्वहीन हो जाना नहीं मानता। बौद्धदर्शन रोगी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाने पर कहता है-अब रोग नहीं रहा। जैनदर्शन रोगी के रागादि या कर्मादि रोगों को नष्ट करता है, स्वयं रोगी को नहीं। कर्मरोग को नष्ट करने के साथ-साथ आत्मा का भी नाश (अभाव) होना, मानना न तो आनन्द का कारण है, न ही ज्ञान - दर्शन का । वैशेषिक दर्शन आत्मा का अस्तित्व तो मानता है, किन्तु साथ ही आत्मा के मुक्त होने पर उसमें ज्ञान, सुख-दुःख आदि का अभाव-उच्छेद-विनाश मानता है। जैनदर्शन मोक्ष में दुःखभाव तो मानता है, किन्तु सुखभाव नहीं । मोक्ष में सुख तो ससीम से असीम हो जाता - अनन्त प्राप्त हो जाता है । किन्तु वह भौतिक - पौद्गलिक कर्मजन्य सुख नहीं, आत्मिक अव्याबाध-सुख मोक्ष में है। अतः जैनधर्म का परिनिर्वाण न तो आत्मा का बुझ जाना ( अस्तित्वहीन हो जाना ) है और न सुखाभाव रूप है, वह दुःखाभाव रूप तो है ही, उससे भी बढ़कर असीम - अनन्त सुखरूप है। अतः मुक्तात्मा अनन्त सुखी हो जाते हैं, यह तथ्य परिनिव्वायंति पद द्वारा व्यक्त किया गया है। इसके पश्चात् सबसे अन्त में - " सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । ” ( समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं।) ये पद इसलिए दिये हैं कि सांख्य आदि दर्शन पुरुष (आत्मा) को कर्मबन्ध से सदैव रहित और न तत्फलस्वरूप दुःखादि से युक्त मानते हैं। वे इन्हें जड़ प्रकृति के धर्म मानते हैं। प्रश्न है - कर्म और तज्जन्य दुःखरूप फल आत्मा को लगते ही नहीं, तब आत्माएँ दुःखी क्यों ? साधना किसलिए ? कर्म ही कर्मफल जब तक लगा रहेगा, तब तक संसार ही तो है, मोक्ष कहाँ ? अतः कर्म और तज्जन्य समस्त दुःखादि का अन्त करने पर ही आत्माएँ मुक्त हो जाती हैं | इसे द्योतित करने हेतु 'सव्वदुक्खाणमंतं करेंति' शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिसके दो अर्थ होते हैंसमसा शुभाशुभ कर्मों का या कर्मजन्य दुःखों का अन्त कर देते हैं । " " सिद्ध- परमात्मा की मौलिक पहचान : आठ आत्मिक गुणों के द्वारा सिद्ध-परमात्मा सिद्धत्व-प्राप्ति के पूर्व ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मों का समूल नाश करके जन्म-मरणरूप संसार से, समस्त शरीरादि से सर्वथा मुक्त हो १. 'श्रमणसूत्र' ( उपा. अमर मुनि ) से भाव ग्रहण, पृ. ३२८-३३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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