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________________ * १२० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * अनन्त ज्ञानी होने पर ही निजानन्द की अनुभूति कर सकती है ? बुद्धत्व के बिना सिद्धत्व का कुछ भी मूल्य नहीं है। अतः सिद्ध हो जाने के बाद बुद्धत्व का रहना अत्यावश्यक है। ज्ञान और आत्मा में तो तादात्म्य है। आत्मा ज्ञानस्वरूप ही तो है। जब ज्ञान ही नहीं तो आत्मा का ही अस्तित्व कहाँ रहेगा? मोक्ष में तो सिद्धपरमात्मा सदा अपने अनन्त ज्ञान के प्रकाश से जगमगाते रहते हैं। वहाँ कभी अज्ञानान्धकार प्रवेश नहीं कर सकता। 'बुझंति' के बाद 'मुच्चंति' पद है। जिसका अर्थ है-कर्मों से मुक्त हो जाना। जब तक एक भी परमाणु आत्मा से श्लिष्ट रहेगा, तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। मोक्ष का स्वरूप ही है-समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय होना। मोक्ष में न तो ज्ञानावरणीय आदि कर्म रहते हैं और न ही उन कर्मों के पंचविध कारण रहते हैं, न ही कर्मों के बीज राग-द्वेष ही रहते हैं। किसी भी प्रकार का औदयिकभाव मोक्ष में नहीं रहता; तभी साधक पूर्णतया मुक्त कहला सकता है।' ___ इस सम्बन्ध में प्रश्न उठता है कि समस्त कर्मों का क्षय ही मोक्ष है और. सर्वकर्मक्षय होने पर ही सिद्धत्वभाव प्राप्त होता है, जोकि मोक्ष के पूर्व अवश्यमेव हो जाता है। फिर यह 'मुच्चंति' पद देकर पुनः कर्मों से, मुक्त होने का स्वतंत्र उल्लेख क्यों किया गया? इसका समाधान यह है कि कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि मोक्ष अवस्था में भी कर्म रहते हैं। उनके मतानुसार मोक्ष का अर्थ कर्मों से मुक्ति नहीं, अपितु कर्मफल को भोगना मुक्ति है। जब तक शुभ कर्मों का सुखरूप फल पूर्णतः भोगा नहीं जाता, तब तक आत्मा मोक्ष में रहती है। ज्यों ही फलभोग पूर्ण हुआ, त्यों ही फिर संसार में लौट आता है। जैनदर्शन के सिद्धान्तानुसार यह तो स्वर्ग का ही रूप है, मोक्ष का नहीं। मोक्ष का अर्थ तो कर्मों से सर्वथा छूटना है। मोक्ष में भी कर्म और कर्मफल रहे तो फिर मोक्ष और संसार में अन्तर ही क्या रहा? मोक्ष भी मानना और कर्मबन्ध भी मानना; यह तो वदतो व्याघात है। फिर कर्मजन्य सुख कदापि दुःख से रहित नहीं हो सकता। कर्म होंगे, तो कर्मजनित जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि आदि दुःख भी होंगे। अतः कर्मजन्य सुख भी परस्पर एक-दूसरे से ईर्ष्या, द्वेष, वियोग, अल्प-संयोग, निराशा आदि सुख के बीज बोने वाला होगा। इस प्रकार उनके तथाकथित मोक्ष में भी अनेकानेक दुःखों की परम्परा चल पड़ेगी। इसलिए मुक्तात्मा के लिए सिद्ध-बुद्ध होने के पश्चात् मुक्त-सभी कर्मों से सदा के लिए मुक्त होने की बात 'मुच्चंति' पद से प्रगट की है और मुक्तात्मा सभी प्रकार के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, आधिभौतिक-आधिदैविक दुःखों का अन्त भी १. इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्च सव्वदुक्खपहीणमग्गं; इत्थंठिआ जीवा सिझंति, बुझंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति ।" -आवश्यकसूत्र, श्रमणसूत्र पाठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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