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* विदेह मुक्त सिद्ध
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- परमात्मा: स्वरूप, प्राप्ति, उपाय १२३ *
(४) क्षायिक सम्यक्त्व - दो प्रकार के मोहनीय कर्म (दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय) का क्षय हो जाने से सिद्धों को क्षायिक सम्यक्त्व के साथ क्षायिक चारित्र भी प्राप्त होना चाहिए, किन्तु शरीराभाव होने से सिद्धों बाह्य ( आचरणरूप) चारित्र नहीं होता, किन्तु (धवला के अनुसार ) उनमें चारित्रमोह के क्षय से उत्पन्न अकषायत्वरूप चारित्र की उज्ज्वलता है; पूर्ण समता और पूर्ण निराकुलता है। इससे वे सतत स्वरूपरमण करते हैं।
(५) अव्ययत्व (अक्षय स्थिति ) - मोक्ष में गया हुआ जीव वापस (संसार में) नहीं आता, वहीं रहता है, इसी को अक्षय स्थिति कहते हैं। चारों प्रकार के आयुष्य कर्म का क्षय हो जाने से सिद्ध- परमात्मा को अव्ययत्व ( अजर - अमरत्व) गुण प्राप्त हुआ। जब तक आयुकर्म रहता है, तब तक जीव आयुकर्म के उदय से जिस गति में जितनी आयु बाँधता है, उतने काल तक वहाँ रहकर फिर दूसरी गति में चला जाता है। उस दौरान बाल्य, यौवन, वार्धक्य, रोगित्व-निरोगित्व आदि दशा की सम्भावना रहती है। आयुकर्म स्थितियुक्त है। जब आयुकर्म के प्रदेश आत्मा से सर्वथा पृथक् हो जाते हैं, आयुकर्म नष्ट हो जाता है, तब वहाँ स्थिति की मर्यादा नहीं रहती। इसलिए वहाँ सिद्ध- प्रभु की अक्षय स्थिति होती है। मोक्ष में गया हुआ जीव सादि-अनन्त, अजर, अमर अव्यय हो जाता है। वह अव्ययत्व गुण से युक्त हो जाते हैं। अक्षय स्थिति के साथ सिद्धों की अवगाहना भी अटल (निश्चित अचल ) हो जाती है। इसलिए सिद्ध-परमात्मा में अटल अवगाहना गुण भी पाया जाता है।
(६) अमूर्तिक ( अरूपित्व) - दो प्रकार के नामकर्म ( शुभ नामकर्म-अशुभ नामकर्म) का क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान में अमूर्तिक (अरूपित्व) गुण प्रकट हुआ । नामकर्म के कारण अच्छे-बुरे शरीर, इन्द्रिय, अंगोपांग, जाति आदि का तथा तज्जनित यश-अपयश, गति ( चाल-ढाल ), संघात, संहनन आदि का भी निर्माण होता है। नामकर्म वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श पुद्गलजन्य होता है। औदारिक शरीर आदि के कारण जीवरूपी कहलाता है । जब नामकर्म का सर्वथा क्षय कर दिया तो सिद्ध-परमात्मा शरीरादि तथा वर्णादि से रहित हो गये । शरीरादि तथा वर्णादि से रहित सिद्ध भगवान अशरीरी, निरंजन, निराकार, अरूपी और अमूर्तिक हो गये । शुद्ध आत्मा का निज गुण अमूर्तिक है, अरूपी है।
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(७) अगुरुलघुत्व - द्विविध गोत्रकर्म ( उच्चगोत्र - नीचगोत्र ) का क्षय हो जाने से सिद्ध-प्रभु अगुरुलघुत्व गुण से युक्त हो गये। जब गोत्रकर्म रहता है, तब उच्चगोत्र के कारण नाना प्रकार के गौरव ( गुरुता) की प्राप्ति होती है, तथैव नीचगोत्र के कारण नाना प्रकार की लघुता (हीनता - तिरस्कार) का सामना करना पड़ता है। जब गोत्रकर्म का सर्वथा क्षय हो गया, तब गुरुता -लघुता उच्चता-नीचता या
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