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* ११८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
सर्वकर्मों से मुक्त होने वाले साधकों की चार श्रेणियाँ
मुक्त होने वाले प्रथम श्रेणी के साधक वे होते हैं, जिनके कर्म का भार अल्प होता है, पर उनका साधनाकाल दीर्घ (लम्बा) हो सकता है। परन्तु उन्हें न तो असह्य कष्ट सहने पड़ते हैं और न कठोर तप करना आवश्यक होता है। जैसेभरत चक्रवर्ती।
मुक्त होने वाले द्वितीय श्रेणी के साधक वे होते हैं, जिनके कर्म का भार भी अल्पतर होता है और साधनाकाल भी अल्पतर होता है। वे अल्प तप और अल्प कष्ट का अनुभव करते हुए सहजभाव से मुक्त होते हैं। यथा-मरुदेवी माता।
तृतीय श्रेणी के मुक्तात्मा वे होते हैं, जिनका कर्मभार तो अधिक होता है, किन्तु साधनाकाल अल्प होता है। वे घोर तप और घोर कष्ट का अनुभव करके मुक्त होते हैं। इस श्रेणी के मुक्तात्माओं में गजसुकुमार मुनि का नाम उल्लेखनीय है।
चतुर्थ श्रेणी के मुक्तात्माओं का कर्मभार अत्यधिक होता है, उनका साधनाकाल भी दीर्घतर होता है। इस श्रेणी के साधकों में सनत्कुमार चक्रवर्ती का नाम उल्लेखनीय है। मोक्ष में मुक्त आत्माएँ अनन्त आत्म-सुखों में लीन रहती हैं।
मुक्त आत्माएँ मोक्ष में अनन्त आत्मिक-सुखों में लीन रहती हैं। 'औपपातिकसूत्र' के अनुसार-सिद्धों को जो अव्याबाध (सर्वथा विघ्न-बाधारहित) शाश्वत सुख प्राप्त है, वह न मनुष्यों को प्राप्त है और न समग्र देवों को ही। तीनों कालों से गुणित देवसुख को यदि अनन्त बार वर्ग वर्गित (वर्ग को वर्ग से गुणित) किया जाये तो भी वह मोक्ष सुख के समान नहीं हो सकता। सिद्धों का सुख अनुपमेय है, फिर भी उसे उपमा द्वारा विशेष रूप से समझाया जाता है। जैसे कोई पुरुष अपने मनचाहे सभी गुणों (विशेषताओं) से युक्त भोजन करके भूख-प्यास से मुक्त होकर अपरिमित तृप्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार सर्वकाल तृप्त अनुपम शान्तियुक्त सिद्ध भी शाश्वत एवं अव्याबाध परम सुख में सदा निमग्न रहते हैं। मुक्तावस्था में कर्मों की कोई उपाधि न रहने से, शरीर, इन्द्रिय एवं मन का सर्वथा अभाव हो जाता है। इस कारण मुक्तात्मा जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि एवं वेदना से छुटकारा पाकर सदैव निर्बाध शाश्वत आत्मिक-सुखों का अनुभव करते हैं, वह सुख विषयों से अतीत, निर्बन्धन और निरुपाधिक है। संक्षेप में, मुक्तात्माओं
१. (क) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १९९-२00
(ख) स्थानांगसूत्र, ठा. ४
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