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________________ * विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * ११७ * मुक्तात्मा का संसार में पुनरागमन के लिए विचित्र तर्क और खण्डन कई लोग यह तर्क देते हैं कि एक बार मुक्त होने के बाद जब वह अपने धर्म-तीर्थ की हानि होते देखता है, तो करुणावश या धर्म-संस्थापनार्थ पुनः संसार में लौट आता है। 'द्रव्यसंग्रह' में कहा है-सदाशिववादी १00 कल्प-प्रमाण समय व्यतीत होने पर जब जगत् शून्य हो जाता है, तब मुक्त जीव का संसार में वापस आना मानते हैं।' अथवा कुछ दिन रहकर पुनः संसार में वापस आ जाता है। मुक्ति से पुनरागमन के पक्षधर एक और विचित्र तर्क देते हैं कि यदि मुक्त आत्माएँ पुनः संसार में लौटकर नहीं आएँगी, तो संसार खाली हो जायेगा, संसार में जीवों का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, क्योंकि संसार से जितने जीव मुक्ति में चले जायेंगे, इतने कम हो जायेंगे, यों कम होते-होते एक दिन संसार जीवों से सर्वथा रिक्त हो जायेगा। किन्तु उनका यह तर्क निर्मूल है। आत्माएँ (जीव) अनन्त हैं। जो अनन्त हैं, उनका कदापि अन्त नहीं आ सकता। यदि अनन्त का भी अन्त माना जायेगा, तब तो उसे अनन्त कहना ही निरर्थक हो जायेगा। ईश्वरकर्तृत्ववादियों की मान्यता के अनुसार भी ___ अनन्त संसार का कभी अन्त नहीं होता ईश्वरकर्तत्ववादियों की मान्यता है कि ईश्वर ने अनन्त बार सष्टि उत्पन्न की और अनन्त बार उसका प्रलय किया, भविष्य में भी सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय करेगा। इस पर प्रश्न यह है कि अनन्त बार सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय करने में ईश्वर की शक्ति का अन्त हुआ या नहीं? इस पर उनका कहना है-ईश्वर तो अनन्त शक्तिमान है, उसकी शक्ति का कभी अन्त हो नहीं सकता। यही बात हम कहते हैं कि संसार में जीव भी अनन्त हैं, उनमें से चाहे जितने जीव मुक्ति में चले जायें, फिर भी उनका अन्त नहीं आ सकता। संसार को अनादि-अनन्त मानने पर भी समग्र संसार कभी मुक्त नहीं हो सका, तब फिर भविष्य में इसका अन्त कैसे आ सकता है ? । जो लोग मोक्ष का रहस्य नहीं जानते, वे ही प्रायः मोक्ष से वापस संसार में लौटने की युक्ति-विरुद्ध बात कहते हैं। वास्तव में ऐसे लोग स्वर्ग को मोक्ष समझते हैं। ब्रह्मलोक, गोलोक, बैकुण्ठ आदि स्वर्ग की कोटि में ही आ सकते हैं, मोक्ष की कोटि में नहीं। कर्मकाण्डी मीमांसकों तथा ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म आदि के ' प्रवर्तकों ने मोक्ष को न मानकर स्वर्ग, Heaven, जन्नत आदि को ही विकास की अन्तिम मंजिल माना है। १. द्रव्यसंग्रह, गा. १४, पृ. ४0 २. 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १९३ ३. वही, पृ. १९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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