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________________ * ११६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * मुक्त आत्मा न तो पुनः कर्मबद्ध होता है और न पुनः संसार में आता है ___ मुक्त दशा में आत्मा समस्त कषायादि वैभाविक आधेयों और कर्मोपाधिक विशेषताओं से सर्वथा रहित हो जाती है। सर्वथा शुद्ध-मुक्त आत्मा पुनः कर्म से शुद्ध नहीं होती। इसी कारण मुक्तात्मा का संसार में पुनरावर्तन (पुनरागमन) नहीं होता। पुनरावर्तन का हेतु है-कर्मचक्र। कर्मों का समूल नाश होने पर फिर उसका बन्ध नहीं होता। जब सिद्ध-परमात्मा सर्वकर्म-पुद्गलों से सर्वथा रहित हो चुके हैं, तब फिर पुनः कर्मबन्ध होने का सवाल ही नहीं है। कर्मबद्ध आत्माएँ ही कर्मों के स्थितिबन्ध से युक्त होती हैं, सर्वकर्ममुक्त आत्माएँ नहीं। जिस महान् मुक्तात्मा ने कर्मों का आत्यन्तिक नाश कर दिया है, वह पुनः कर्मलिप्त नहीं होता, वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। जो आत्मा एक बार कर्मों से विमुक्त हो जाती है, वह पुनः कभी कर्मबद्ध नहीं होती, क्योंकि उस अवस्था में कर्मों के कारणों का सर्वथा अभाव हो जाता है। जैसे "बीज के जल जाने पर उसमें पुनः अंकुरित (उत्पन्न) होने की शक्ति नहीं रहती। इसी प्रकार कर्मरूपी बीज के सर्वथा जल जाने पर फिर संसाररूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती।" - व्यवहार में भी देखा जाता है कि जो व्यक्ति दुष्कर्मों के कारण कारागृह में जाते हैं, उनकी स्थिति (सजा की अवधि) बाँधी जाती है। परन्तु जब वह सजा पूरी भोगने या सजा की अवधि पूर्ण हो जाने पर मुक्त (रिहा) कर दिया जाता है, तब फिर उसके लिए राजकीय पत्र (गजट) में ऐसा नहीं लिखा जाता कि "अमुक व्यक्ति सजा पूरी होने से कारागृह से मुक्त कर दिया गया, किन्तु उसे अमुक समय बाद पुनः कारागृह में डाला जायेगा।" अतः कर्मों से सर्वथा मुक्तात्मा का पुनः संसार में आगमन कदापि सम्भव और युक्तिसंगत नहीं है। 'छान्दोग्योपनिषद्' और 'भगवद्गीता' में भी मुक्तात्मा के लिए इसी अपुनरागमन सिद्धान्त का समर्थन किया गया है। -दशाश्रुतस्कंध, द. ५, गा. १२३ १. जहा दड्ढाणं बीयाणं, न जायंति पुणंकुरा। कम्मबीएसु दड्ढेसु न जायंति भवंकुरा। २. दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवतिनांकुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः॥ ३. (क) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १९३ (ख) न स पुनरावर्तते, न पुनरावर्तते। (ग) यद्गत्वा न निवर्तन्ते, तद् धाम परमं मम। -तत्त्वार्थ भाष्य, का.८ -छान्दोग्योपनिषद् -भगवद्गीता, अ. ८, श्लो. २१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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