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* विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * ११५ *
(न्यूनतम) अवगाहना एक हाथ तथा ८ अंगुल होती है, ऐसा सर्वज्ञों द्वारा भाषित है। निष्कर्ष यह है कि सभी प्रकार (उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य) की अवगाहना वाले मनुष्य अपने अन्तिम भव की अवगाहना से सिद्धत्व-प्राप्ति के बाद एक-तिहाई भाग कम अवगाहना से युक्त होते हैं। जो महाभाग सिद्ध-परमात्मा वृद्धावस्था और मृत्यु से विप्रमुक्त हो गये (सर्वथा छूट गये) हैं, उनका संस्थान (आकार) किसी भी लौकिक (संसारी अवस्था के) आकार से नहीं मिलता। __ सिद्धत्व-प्राप्ति के समय कम से कम आठ वर्ष से कुछ अधिक आयुष्य में तथा अधिक से अधिक करोड़ पूर्व के आयुष्य में सिद्ध होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आठ वर्ष या उससे कम की आयु वाले और करोड़ पूर्व से अधिक की आयु के जीव (मनुष्य) सिद्ध नहीं हो सकते।'
अनेक सिद्धों की अपेक्षा सिद्ध अनादि-अनन्त,
एक सिद्ध की अपेक्षा सादि-अनन्त अनेक सिद्धों की अपेक्षा से सिद्ध भगवान को अनादि-अनन्त कहा जाता है, किन्तु किसी एक मोक्षगत जीव की अपेक्षा से सिद्ध भगवान को सादि-अनन्त कहा जाता है, क्योंकि जिस काल में अमुक व्यक्ति मोक्ष पहुँचा है, उस काल की अपेक्षा उस मुक्तात्मा की आदि तो है परन्तु अपुनरावृत्ति होने से उसे अनन्त कहा जाता है। अतः जो अनादि-अनन्तयुक्त सिद्ध-पद है, उसमें पूर्वोक्त गुण सदा से चले आ रहे हैं। परन्तु जो सादि-अनन्त सिद्ध-पद है, उसमें उक्त गुण आठ कर्मों के क्षय होने से प्रकट हो जाते हैं। जिस प्रकार सोना मलरहित हो जाने पर अपनी शुद्धता और चमक-दमक धारण करने लग जाता है, उसी प्रकार जब जीव सभी प्रकार के कर्ममल से रहित हो जाता है, तब अपनी शुद्ध निर्मल अनन्त गुणरूप निज दशा को शाश्वत रूप से धारण कर लेता है। 'औपपातिकसूत्र' के अनुसार-सिद्ध भगवान वहाँ (लोकाग्र में) मोक्ष-प्राप्ति के काल की अपेक्षा से सादि (आदि सहित) और अपर्यवसित (अन्तरहित = अनन्त) शाश्वत काल तक रहते हैं। जैसे अग्नि से सर्वथा दग्ध बीजों की पुनः अंकुरों के रूप में उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही कर्मबीज दग्ध हो जाने के कारण सिद्धों की भी फिर जन्मोत्पत्ति नहीं होती।
१. (क) औपपातिकसूत्र, सिद्धाधिकार, सू. १५६-१५८
(ख) वहीं, सिद्धाधिकार, गा. ३-८
(ग) वही, सिद्धाधिकार. सू. १५९ २. (क) एगत्तेण साईया अपज्जवसिया वि य।
पुहुत्तेणं अणाईया अपज्जवसिया वि य॥ (ख) औपपातिकसूत्र, सू. १५५
-उत्तरा., अ.३६, गा. ६५
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