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* विदेह मुक्त सिद्ध- परमात्मा: स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १०९ *
कर्मबन्धन छूटते ही चार बातें घटित होती हैं।
आशय यह है कि लोक के अन्तिम भाग, वह बिन्दु जहाँ से अलोकाकाश का प्रारम्भ होता है, उस स्थान का नाम सिद्धालय है । इस स्थान पर मुक्तात्मा ऊर्ध्व गति से गमन करता हुआ, बिना मोड़ लिए, सरल सीधी रेखा में गमन करता हुआ, अपने देह-त्याग के स्थान से एक समय मात्र में सिद्धशिला से भी ऊपर पहुँचकर स्थित हो जाता है। जीव की यह सर्वकर्म विमुक्त दशा- सिद्धदशा अथवा सिद्धगति कहलाती है। सर्वकर्मबन्धन छूटते ही चार बातें घटित होती हैं(१) औपशमिक आदि भावों का व्युच्छन्न ( नष्ट) होना; (२) शरीर (मन-वचन-काययुक्त) का छूट जाना, (३) कर्मों से मुक्त होते ही स्थिर न रहकर तत्काल एक समय मात्र में ऊर्ध्वगति से गमन करना, और (४) लोकान्त में अवस्थित होना । '
मुक्तात्मा के शीघ्र ऊर्ध्वगमन के सम्बन्ध में कुछ प्रश्नोत्तर
इस सम्बन्ध में प्रश्न हैं कि सर्वकर्ममुक्त अमूर्त आत्मा कर्म अथवा शरीर आदि पौद्गलिक पदार्थों की सहायता के बिना ऊर्ध्व दिशा में ही गमन क्यों करता है ? उसकी गमन-क्रिया में हेतु क्या है तथा उसकी गति ऊर्ध्व ही क्यों होती है तथा वह लोक के अग्र भाग में ही जाकर स्थित क्यों हो जाते हैं ? आगे क्यों नहीं जाता ?
इन प्रश्नों के समाधान शास्त्रों में इस प्रकार दिये गये हैं- जैसे पाषाण आदि पुद्गलों का स्वभाव नीचे की ओर गति करने का है, वायु का स्वभाव तिरछी दिशा में गति करने का है, अग्निशिखा का स्वभाव ऊपर की ओर गति करने का है, इसी प्रकार कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्व गति करने का है। परन्तु आत्मा जब तक अन्य प्रतिबन्धक द्रव्य के संग या बन्धन के कारण गति नहीं कर पाता अथवा नीची या तिरछी दिशा में गति करता है । ऐसा प्रतिबन्धक द्रव्य क़र्म है। यानी जब तक आत्मा कर्मों से लिप्त रहता है, तब तक उसमें एक प्रकार गुरुता रहती है। इसी गुरुता के कारण आत्मा स्वभावतः ऊर्ध्व गतिशील होने पर भी ऊर्ध्व गति नहीं कर पाता ।
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सर्वकर्ममुक्त जीवों का ऊर्ध्वगमन : छह कारणों से
'भगवतीसूत्र' में गौतम स्वामी द्वारा अकर्मक (कर्ममुक्त ) जीवों की गति के सम्बन्ध में पूछे जाने पर भगवान के द्वारा दिया समाधान इस प्रकार अंकित हैअकर्मक जीवों की भी ऊर्ध्व गति मानी जाती है। उसके छह कारण हैं - (१) कर्मों का संग छूटने से, (२) मोह के दूर होने से (रागरहित होने से ), (३) कर्मबन्धन के
१. ' तत्त्वार्थसूत्र विवेचन ' ( उपा. केवल मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ४६८
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