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________________ * ११० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * छेदन से, (४) गति-परिणाम (स्वभाव) से, (५) कर्मरूपी ईंधन के अभाव से, और (६) पूर्व प्रयोग से।' (१) कर्मों का संग छूटने (संगरहितता) से-सर्वकर्ममुक्त आत्मा के कर्मों का संग छूट जाने से और उसके साथ लगे कर्मबन्धन टूट जाने पर कोई प्रतिबन्धक नहीं रहता। अतः वह (मुक्तात्मा) अपने स्वभावानुसार ऊर्ध्वगमन करता है। (२) पूर्व-प्रयोग से यानी पूर्वबद्ध कर्म छूट जाने के बाद भी उससे प्राप्त आवेश (वेग) से। जैसे कुम्हार का चाक डण्डे और हाथ के हटा लेने पर भी पहले से प्राप्त वेग के कारण घूमता रहता है, वैसे ही कर्ममुक्त जीव भी पूर्व कर्म से प्राप्त आवेग के कारण स्वभावानुसार ऊर्ध्व गति ही करता है। अथवा जैसे धनुष से तीर छूटते ही बिना किसी रुकावट के गति करता है, उसी प्रकार कर्मों का संग छूटने से, रागरहित (निर्लेप) हो जाने से, यावत् पूर्व प्रयोगवश कर्ममुक्त जीवों का ऊर्ध्वगमन माना जाता है। (३) बन्धन-छेदन से-कर्मबन्धन-छेदन से कर्मरहित जीव शरीर छोड़कर एकदम ऊर्ध्वगमन करता है। जैसे कलाई की फली, मूंग की फली, उड़द की फली या एरण्ड के फल (वीज) को धूप में सुखाने पर उस फली के या एरण्ड फल के टूटते ही उसका बीज एकदम छिटककर ऊपर की ओर उछलता है, वैसे ही कर्मबन्धन के टूटते ही कर्ममुक्त जीव शरीर को छोड़कर शीघ्र ऊर्ध्वगमन करता है। (४) स्वाभाविक गति-परिणाम से-जिस प्रकार धुआँ ईंधन से विप्रमुक्त (रहित) होते ही बिना किसी व्याघात (रुकावट) के ऊर्ध्वगमन करता है, ठीक उसी प्रकार कर्ममुक्त जीव भी स्वाभाविक रूप से ऊर्ध्वगमन करते हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि कर्ममुक्त आत्मा (सिद्ध-परमात्मा) लोकाग्र भाग पर्यन्त जाकर वहाँ सादि-अनन्त वाले (शाश्वत) होकर सिद्ध-शिला पर विराजमान हो जाते हैं। १. (क) अणुपुव्वेण अट्ठकम्मपगडीओ खवेत्ता गगण-तलमुप्पइत्ता उप्पिं लोयग्ग-पतिट्ठाणा भवंति। -ज्ञाताधर्मकथा, अ. ६, सू. ६२ (ख) (प्र.) कहं णं भंते ! अकम्मस्स गति पन्नयति? (उ.) गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणाए, गतिपरिणामेणं, बंधण-छेयणयाए निरिंधणयाए पुव्व-पओगेणं अकम्मस्स गती पन्नायति। -भगवती, श. ७, उ. १, सू. २६५ २. 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. ९२, १९५ ३. तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद् बंधक्षेदान्तथागति-परिणामाच्च तद्गतिः॥६॥ -तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, अ. १0, सू. ५-६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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