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________________ * १०८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * चक्र से छूट जाने के कारण) वह अपुनरावृत्ति है। ऐसी सिद्धिगति को प्राप्त भयविजेता, रागादिविजेता, सिद्ध भगवन्तों को मेरा नमस्कार हो।' सिद्धि-परमात्मा का आत्मिक स्वरूप _ 'औपपातिकसूत्र' में कहा गया है-वहाँ (लोकाग्र में) वे (मुक्तात्मा) सादि (मोक्ष-प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदि सहित) हैं। अपर्यवसित (अन्तरहित) अशरीर (शरीरादिरहित) हैं, अशरीरी (शरीररहित) हैं, जीवघन (सघन अवगाढ़ आत्म-प्रदेशों से युक्त) हैं, ज्ञानरूप साकार तथा दर्शनरूप अनाकार उपयोग-सहित हैं। वे निष्ठितार्थ (कृतकृत्य) हैं, अर्थात् सर्व प्रयोजन समाप्त किये हुए हैं। निरेजना = निश्चल हैं, स्थिर या निष्प्रकम्प हैं, नीरज (कर्मरज से रहित बध्यमान कर्मवर्जित) हैं, निर्मल (कर्ममलरहित अथवा पूर्वबद्ध कर्मों से विनिर्युक्त) हैं, वितिमिर (अज्ञानान्धकार से रहित) हैं। ऐसे विशुद्ध (परम शुद्ध या कर्मक्षय निष्पन्न आत्म-शुद्धियुक्त) सिद्ध भगवान भविष्य में शाश्वत काल पर्यन्त (अपने स्वरूप में) संस्थित रहते हैं। मुक्तात्मा : कहाँ रुकते हैं, कहाँ स्थिर होते हैं और क्यों ? ... मुक्तात्मा जब सर्वकर्मों से सर्वथा रहित हो जाते हैं, तब वे तत्काल गति करते हैं, स्थिर नहीं रहते। उनकी गति ऊर्ध्व (ऊँची) और लोक के अन्त तक होती है, उससे ऊपर नहीं। जैसे कि 'उत्तराध्ययन', 'औपपातिक' तथा 'तत्त्वार्थसूत्र' आदि में कहा गया है-प्रश्न है-“सिद्ध भगवन्त कहाँ जाकर रुकते हैं? सिद्ध-परमात्मा कहाँ जाकर स्थित होते हैं ? सिद्ध भगवान कहाँ शरीर त्यागकर (अशरीरी होकर) किस जगह जाकर (शाश्वत रूप से) सिद्ध होते हैं ?" उत्तर है-“सिद्ध भगवान अलोक से लगकर रुकते हैं और लोक के अग्र भाग में जाकर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। सिद्ध-परमात्मा यहाँ मनुष्यलोक में शरीर का त्याग करके वहाँ (लोक के अग्र भाग में) जाकर (शाश्वत) सिद्ध हो जाते हैं। १. सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्ति सिद्धिगइ नामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो . जिणाणं जिअभयाणं। -आवश्यकसूत्र-शक्रस्तव पाठ २. ते णं तत्थ सिद्धा हवंति सादीया, अपज्जवसिया, असरीरा, जीवघणा, दंसणनाणोवउत्ता निट्ठियट्ठा, निरेयणा, नीरया णिम्मला वितिमिरा, विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति । -औपपातिकसूत्र १५४ ३. कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्ठिया? कहिं बोंदिं चइत्ताणं, कत्थ गंतूण सिज्झइ?॥१॥ अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया। इह बोंदि चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ?॥२॥ -उत्तराध्ययनसूत्र ३६/५५-५६; औपपातिकसूत्र १६८-१६९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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