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* विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १०७ *
शुद्ध आत्मा (सिद्ध-परमात्मा) का स्वरूप 'आचारांगसूत्र' में परम विशुद्ध आत्मा का जो स्वरूप बताया है, वही सिद्ध परमात्मा का स्वरूप है। वह इस प्रकार है-"शुद्ध आत्मा (सिद्ध) का वर्णन करने में कोई भी शब्द (स्वर) समर्थ नहीं है। कोई भी तर्क-वितर्क शुद्ध आत्मा के विषय में नहीं चलता। मति की कल्पना का भी वहाँ (शुद्ध आत्मा के विषय में) प्रवेश (अवगाहन = अवकाश) नहीं है। केवल सम्पूर्ण ज्ञानमय शुद्ध आत्मा ही वहाँ है।" वह (शुद्ध आत्मा) न तो दीर्घ (लम्बा) है, न ही ह्रस्व (छोटा) है, न वह वृत्त (गोलाकार) है, न त्रिकोण है, न चौकोर है, न ही परिमण्डलाकार (चूड़ी के आकार का) है। वह न काला है, न नीला है, न लाल है, न पीला है, न ही शुक्ल है। वह न सुगन्धित है, न दुर्गन्धित है। वह कटु नहीं, कसैला नहीं, खट्टा नहीं, मीठा नहीं, तिक्त नहीं। न ही वह कठोर है, न कोमल, न गुरु (भारी), न हल्का है, न शीत (ठण्डा) है, न उष्ण है, न ही स्निग्ध है और न रूढ़ है।"
वह स्त्री नहीं, पुरुष नहीं, नपंसक नहीं. केवल परिज्ञानरूप है, ज्ञानमय है. निरंजन निराकार है। उसके लिए कोई भी उपमा नहीं दी जा सकती। वह अरूपी (अमूर्त) और अलक्ष्य है। उसके लिए किसी भी पद (शब्द) का प्रयोग नहीं किया जा सकता। वह शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शरूप नहीं है। संक्षेप में, वह समस्त पौद्गलिक गुणों और पर्यायों से अतीत, शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय और सत्-चिदानन्दमय शुद्धात्मरूप (सिद्ध-स्वरूप) है।'
शिवादि गुणों से युक्त सिद्धगति को सम्प्राप्त : सिद्ध-परमात्मा सिद्ध भगवान का संक्षेप में स्वरूप बताते हुए 'शक्रस्तव' में कहा गया है-वे सर्वथा निरामय, निरुपम परमानन्दमय सिद्धधाम (सिद्धशिला) जो लोक के अग्र भाग में है और सिद्धगति नामक स्थान कहलाता है, उसी स्थान को सम्प्राप्त आत्मा सिद्ध कहलाते हैं। वह स्थान शिव (शीत-उष्ण, क्षुधा-पिपासा, दंश-मशक, सर्पादि से होने वाले सर्व उपद्रवों या बाधाओं से रहित) है, अचल (स्वाभाविक या प्रयोगजन्य हलन-चलन या गमनागमन आदि कारणों का अभाव होने से स्थिर) है, (रोग के कारणभूत तन-मन का सर्वथा अभाव होने से), वह अरुज (रोगरहित) है। (अनन्त पदार्थों से सम्बन्धित ज्ञानमय होने से) अनन्त है। (सादि होने पर भी अन्तरहित होने से) वह अक्षय है अथवा (सुख से परिपूर्ण होने के कारण पूर्णिमा के चन्द्र की तरह) अक्षत है। (दूसरों = आने वाले मुक्तात्माओं के लिए या अपने लिए किसी भी प्रकार का बाधाकारी न होने से) वह अव्याबाध है। (एक बार सिद्धि = मुक्ति प्राप्त कर लेने के बाद फिर मुक्तात्मा लौटकर संसार में नहीं आता, वह सदा के लिए जन्म-मरण के
१. आचारांग, श्रु. १, अ. ५, उ. ६
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