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________________ * १०६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * (ज्ञानोपयोगी अवस्था) में सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त कर देता है । "" सिद्ध- परमात्मा : कैसे हैं, कैसे नहीं ? जैन - सिद्धान्त के अनुसार यह निश्चित है कि मध्य लोक में, ढाई द्वीप में, १५ कर्मभूमियों में ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में उत्पन्न होने वाले जो मनुष्य सर्वकामभोगों से विरत, सर्वसंगविरत ( सर्वआसक्तिरहित), सर्वस्नेहातिक्रान्त, अक्रोधी ( क्रोधविफल कर्त्ता), निष्क्रोध ( क्रोधोदयरहित) एवं क्षीणक्रोध हों, जिनके . मान, माया और लोभ भी क्षीण हो गये हों, वे आठों, कर्मों को समस्त प्रकृतियों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं और लोक के अग्र भाग में प्रतिष्ठित होते हैं; मोक्ष प्राप्त करते हैं। मोक्ष में जाने के बाद वे फिर कदापि लौटकर संसार में नहीं आते। २ सिद्ध भगवान राग-द्वेष को जीतकर अरिहन्त बनकर चौदहवें गुणस्थान भूमिका को भी पार कर, सदा के लिए जन्म मरण से रहित हो जाते हैं। शरीर और शरीरसम्बद्ध सभी सुख-दुःखों को पार कर अनन्त एक रस आत्म-स्वरूप में स्थित हो जाते हैं। वे द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार के कर्मों से रहित - अलिप्त होकर निराकुल अव्याबाध-सुखरूप आनन्दमय शुद्ध स्वभाव में परिणत हो जाते हैं। वे निजानन्द में सदैव रहते हैं। निज ज्ञानादि स्वभाव में रमण करते हैं। 'औपचारिकसूत्र' में कहा गया है - " वे सिद्ध हैं - उन्होंने अपने सर्वप्रयोजन साध लिये हैं। वे बुद्ध हैं-केवलज्ञान द्वारा समस्त विश्व का बोध उन्हें स्वायत्त है। वे पारंगत हैंसंसार सागर को पार कर चुके हैं। वे परम्परागत हैं- परम्परा-प्राप्त मोक्षोपायों का अवलम्बन लेकर वे संसार-सागर के पार पहुँचे हुए हैं। वे उन्मुक्त कर्म-कवच हैं-जो कर्मों का कवच उन पर लगा था, उससे वे छूटे हुए हैं। वे अजर हैं - वृद्धावस्था से रहित हैं, अमर हैं - मृत्युरहित हैं तथा वे असंग हैं--समस्त आसक्तियों और संसर्गोंपर-पदार्थ संसर्गों से रहित हैं ।" वे कृतकृत्य हैं, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। सिद्धदशा आत्मा की परिपूर्ण शुद्ध और मुक्त दशा है। वहाँ एकमात्र आत्मा ही आत्मा है। वहाँ परद्रव्य और पर - परिणति कुछ भी नहीं है । वहाँ न कर्म हैं और न कर्मबन्ध के कारण हैं अतएव वहाँ से लौटकर न वे संसार में आते हैं, न ही जन्म-मरण पाते हैं। सिद्ध-परमात्मा आत्म-विकास की चरम सीमा पर हैं। ३ ५. उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ४३ २. (क) 'जैनतत्त्वकलिका' (आ. आत्माराम जी) से भाव ग्रहण, पृ. ९१ (ख) औपपातिकसूत्र, सू. १३० ३. (क) 'श्रमणसूत्र' ( उपा. अमर मुनि ) से भाव ग्रहण, पृ. १६४ (a) औपपातिकसूत्र गा. १८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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