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________________ * विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १०५ * शिथिल होता जाता है। घातिकर्म परमाणुओं के क्षय होने के साथ अन्य अघातिकर्म परमाणुओं का आकर्षण और तीव्र बन्ध भी बन्द हो जाता है, जो कर्म पूर्वबद्ध थे, वे प्रदेशरूप से उदय में आते हैं; वीतराग हो जाने के पश्चात् नाममात्र का (सातावेदनीय का) दो समय का बन्ध होता है। कषायाभाव के कारण अनुभागबन्ध और स्थितिबन्ध नहीं होता। पहले समय में स्पृष्टबन्ध, दूसरे समय में उदय प्राप्त और वेदित होता है और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो जाता है। फिर चौथे समय में वह अकर्म बन जाता है। अर्थात् समस्त कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाता है।' अकर्मा होने के बाद अयोगी, शैलेशी और सिद्ध अवस्था का क्रम इससे आगे की अयोगी से शैलेशी और सिद्ध अवस्था का वर्णन 'दशवैकालिकसूत्र' में तीन गाथाओं द्वारा किया गया है-“जब साधक जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान लेता है, तब योगों का निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है। इसके पश्चात् अपने समस्त कर्मों का क्षय करके कर्मरजमुक्त होकर सिद्धि-मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। सर्वकर्ममुक्ति-प्राप्त वह सिद्ध-परमात्मा फिर लोक के मस्तक (अग्र भाग) पर स्थित होकर शाश्वत सिद्ध हो जाता है।"२ योगों के सर्वथा निरोध आदि का क्रम 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इस प्रकार बताया गया है-"(केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात्) शेष आयु को भोगता हुआ जब अन्तर्मुहूर्त-परिमित आयु शेष रहती है, तब अनगार योग निरोध में प्रवृत्त होता है। उस समय सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति शुक्लध्यान को ध्याता हुआ वह सर्वप्रथम मनोयोग का विरोध करता है, फिर वचनयोग का, तदनन्तर आनापान (श्वासोच्छ्वास) का निरोध करके स्वल्प (मध्यम) गति से पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारणकाल जितने समय में समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान में लीन हुआ अनगार वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चारों कर्मों का एक साथ • क्षय कर देता है।" ___ “तत्पश्चात वह औदारिक और कार्मण शरीर का भी सदा के लिए सर्वथा परित्याग कर देता है। सम्पूर्ण रूप से इन शरीरों से रहित होकर वह ऋजु श्रेणी को प्राप्त होता है और एक समय में अस्पृशद्गति रूप ऊर्ध्व गति से बिना मोड़ लिए (अविग्रह रूप से) सीधे वहाँ (लोकाग्र-प्रदेश में) जाकर साकारोपयुक्त अवस्था १. तं पढमसमये बद्धं, विहयसमए बेइयं, तइयसमए निज्जिण्णं । तं बद्धं पुढे उदीरियं बेइयं निज्जिण्णं, सेयाले य अकम्मया च भवइ। -उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २९, सू. ७१ . २. दशवैकालिकसूत्र, अ. ४, गा. २३-२५ ३. उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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