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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु * १०३ *
साधर्मिक; -इन दस सेवा योग्य पात्रों की यथोचित वैयावृत्य करना), (१७) समाधि (आधि, व्याधि, उपाधि से रहित होकर द्रव्य और भावरूप से उत्कृष्ट आत्म-समाधि प्राप्त करना), (१८) अपूर्व ज्ञान-ग्रहण ( नये-नये ज्ञान को ग्रहण करने की तीव्र भावना), (१९) श्रुतभक्ति ( शास्त्र, आगम, ग्रन्थ या सिद्धान्त के प्रति श्रद्धा-भक्ति, श्रुताज्ञानुसार प्रवृत्ति), और (२०) प्रवचन- प्रभावना (तीर्थंकर भगवान द्वारा उपदिष्ट या कथित प्रवचन या संघ व धर्म की प्रभावना - प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करना) ।
तीर्थंकर नामकर्म का निकाचित बन्ध करने के लिए इन बीस कारणों (स्थानकों) में से एक या अधिक की आराधना करना अनिवार्य है। इस प्रकार तीर्थंकरत्व-प्राप्ति के बाद वे वीतराग प्रभु संघ स्थापना, प्रवचन आदि करते हुए चार अघातिकर्मों का यथासमय क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं । '.
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अरिहन्त-सिद्ध-पवयण गुरु थेर बहुस्सुए-तवस्सीसु । वच्छलया एएसिं, अभिक्खणनाणोवओगे य ॥ दंसण- विए- आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो । खण-लव-तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य॥ अपुव्व-नाण-गहणो सुयभत्ती पवयणे पभावणा य। एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ (ख) आवश्यक निर्युक्ति
(ग) तत्त्वार्थसूत्र में १६ कारण
(घ) समणस्स भगवओ महावीरस्स तित्थंसि णवहिं जीवेहिं तित्थगर-णाम - गोते कम्मे - स्थानांग, स्था. ९
णिव्वतिते ।
(ङ) तत्थ इमेहिं सोलसेहिं कारणेहिं जीवा तित्थयर-णाम गोय-कम्मं बंधति ।
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-ज्ञाताधर्मकथा, अ. ८, सू. ६४
-धवला, खण्ड ३; बन्धकतत्त्व प्रकरण, सू. ४०, पृ. ७८
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