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* १०२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
भावदया उत्पन्न होती है। निरन्तर यह भावना उत्पन्न होती है-विश्व के समग्र जीव जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हों, संसार में आधि-व्याधि-उपाधि रूप त्रिविध ताप से संतप्त जीव दुःखमुक्त हों, समस्त प्राणी जिनशासनरसिक हों; सभी धर्मभावना से
ओतप्रोत हों, संसार के समस्त जीव मोक्षमार्ग के पथिक बनें, इस प्रकार की उत्कृष्ट सद्भावना के बल पर वे महात्मा-पुण्यात्मा तीर्थंकर नामकर्म सरीखी अप्रतिम प्रभावशाली, उत्कृष्ट पुण्यशाली तीर्थंकर नाम प्रकृति की निकाचना करते हैं। निकाचन तीर्थकर नामकर्मबन्ध के बीस मूलाधार
तीर्थंकर बनने योग्य आत्माएँ अपने तथा भव्यत्व के योग्य परिणामों से निम्नोक्त बीस उपायों (स्थानकों) में से किसी एक, अनेक या सभी कारणों का अवलम्बन लेती हैं। ज्ञातासूत्र, आवश्यकनियुक्ति आदि आगमों में इनके लिए कारण, हेतु या स्थानक आदि शब्द प्रयुक्त किये गए हैं। वे क्रमशः इस प्रकार हैं(१) अरिहन्त-वत्सलता (अरिहन्त-भक्ति), (२) सिद्ध-वत्सलता (सिद्ध-भक्ति), (३) प्रवचन-वत्सलता (प्रवचन-भक्ति), (४) गुरु या आचार्य-वत्सलता (गुरु या आचार्य की भक्ति), (५) स्थविर-वात्सल्य (स्थविर-भक्ति), (६) बहुश्रुत-वात्सल्य (बहुश्रुत-भक्ति), (७) तपस्वी-वात्सल्य (तपस्वी-भक्ति), (८) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग (बार-बार तत्त्वज्ञान में उपयोग), (९) दर्शन-विशुद्धि (सम्यक्त्व सुदृढ़ और निर्मल रखना), (१०) विनय-सम्पन्नता (ज्ञान, ज्ञानवान्, दर्शन, दर्शन-सम्यग्दृष्टि, सम्यक्चारित्र-चारित्रवान् का विनय-बहुमान करना तथा आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, नवदीक्षित, ग्लान, रुग्ण साधु-साध्वी, गण, कुल, संघ तथा सामान्य साधु आदि की सेवा-शुश्रूषा रूप उपचारविनय करना), (११) आवश्यक क्रिया का अपरित्याग (सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान, इन छह आवश्यकों को बिना नागा किये करना), (१२) निरतिचाररूप से शील और व्रतों का पालन (मूलगुण और उत्तरगुणों का व्रत, नियम, तप, त्याग-प्रत्याख्यान का शुद्ध रूप से पालन करना), (१३) क्षण-लव (अभीक्ष्ण संवेगभाव) की साधना (संवेगभाव द्वादश अनुप्रेक्षाओं तथा धर्म-शुक्लध्यान में जीवन के क्षण-लव को शुद्धोपयोग में व्यतीत करना), (१४) यथाशक्ति तपश्चरण (यथाशक्ति बाह्य-आभ्यन्तर तप की शुद्ध आराधना करना), (१५) यथाशक्ति त्याग (आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान, औषधदान तथा अन्यान्य धर्म-उपकरणों का दान निःस्वार्थभाव से देना), (१६) वैयावृत्यकरण (आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, नवदीक्षित, ग्लान = रुग्ण, स्थविर, गण, कुल, संघ, साधु तथा समनोज्ञ =
१. सभी जीव करूं जिन शासनरसी, ऐसी भावदया मन उलसे। २. 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ७१-७३
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