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________________ * विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * १०१ * सहते हैं। नरक की अपार, दुःसह, अकथ्य वेदना में भी आत्म-जागृति, अपूर्व समाधिभाव ही तीर्थंकरों की सर्वश्रेष्ठ महानता एवं विशिष्टता है। देवलोक में जाने वाले भावी तीर्थंकर के जीव को वहाँ भोगविलास के, अपार साधन और वातावरण सुखमय मिलने पर भी वे उनमें आसक्त नहीं होते, अन्तर में आनन्द नहीं मानते। वे इसे चैतन्य पुद्गल के खेल तथा पुण्य की लीला समझकर स्वयं अनासक्तभाव में रहते हैं।' निकाचित रूप तीर्थकरत्व-उपार्जन की अर्हताएँ निकाचित रूप से तीर्थंकरत्व-उपार्जन के समय निर्मल सम्यक्त्व, साधुत्व या श्रावकत्व अनिवार्य है। इन तीनों में से चाहे कोई भी मनुष्य हो, किसी भी स्थिति में हो, उसे तीर्थंकरत्व प्राप्त हो सकता है। इसकी उपलब्धि में मुख्यतया तीन साधनाएँ सहायक होती हैं-(१) अप्रतिहत निर्मल सम्यक्त्व, (२) बीस स्थानक, और (३) विशिष्ट विश्वदया। भगवान महावीर ने राज्य का त्यागकर मुनित्व अंगीकार करके नन्दन नृप के भव में एक-एक लाख वर्ष तक लगातार मासक्षपण तप के पारणे के बाद मासक्षपण तप की आराधना द्वारा तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया था। भगवान ऋषभदेव और भगवान पार्श्वनाथ ने राज्यऋद्धि एवं सुखशीलता का त्यागकर सर्वविरति रूप चारित्र एवं पवित्र साधुत्व अंगीकार करके प्रबल साधना द्वारा तीर्थंकरत्व का निकाचन बंध किया था। मगध-सम्राट् श्रेणिक नृप ने मात्र क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके और सुलसा श्राविका ने श्रावकधर्म का विशुद्ध पालन करके तीर्थंकर नामकर्म का निकाचन बन्ध किया। 'आवश्यकनियुक्ति' में कहा गया है-“निकाचित बन्ध तो नियमतः मनुष्यगति में ही होता है। सम्यग्दृष्टि भव्यात्मा (चाहे स्त्री हो, पुरुष हो या नपुंसक) ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय की उत्कृष्ट आराधना-साधना में पुरुषार्थ करते-करते तीर्थंकर नामकर्म की सर्वोत्तम पुण्य प्रकृति के दलिक इकट्ठे होते रहते हैं। साधना सतत चलती रहे तो कालान्तर में भावों की परम उत्कटता से तीर्थंकर नामकर्म निकाचित (दृढ़ीभूत = अवश्य फलदायी) बँध जाता है। वह भी उसी मनुष्य को जो अरिहन्त भगवन्त को, उनके स्वरूप को यथार्थ रूप से जानता-मानता हो, उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति-बहुमान से वह सम्यक्त्वी हो, श्रावक-श्राविका हो या साधु-साध्वी। अनन्य भक्तिभाव और भावों की उत्कृष्टतातीव्रता से निकाचन तीर्थंकर नामकर्म बाँध लेता है। ऐसे सम्यक्त्व के प्रभाव से तीर्थंकर की पुण्य-राशि उपार्जित करने वाले पुण्यात्मा के हृदय में संसार के दुःखमय, दुःखमूलक और दुःखानुबन्धी स्वभाव का ख्याल बहुत अधिक आता है। ऐसे दुःखमय संसार में फंसे हुए प्राणिमात्र पर उसके कोमल हृदय में उत्कृष्ट १. 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ७४-७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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