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________________ * १०० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * गए, तिर्यंच योनि में भी गए, सिंह बने। और भी कई छोटे-छोटे जीवों में भी जन्मे। स्पष्ट है कि तीर्थंकर भी शुभाशुभ के बहुत चढ़ाव-उतार के दौर से गुजरे। यह निश्चित है कि अनिकाचित रूप से तीर्थंकर नामकर्म के अनेक बार बँध जाने पर भी सफलता नहीं मिलती। निकाचित रूप से बँध जाने पर तीसरे भव में अवश्य तीर्थकरत्व-प्राप्ति तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध दो प्रकार का होता है-निकांचना रूप और अनिकाचना रूप। अनिकाचना रूप बन्ध तीसरे भव (तीर्थंकर रूप में जन्म लेने के दो भव पूर्व) से पहले भी हो सकता है, क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध जघन्यतः अन्तःकोटाकोटि सागरोपम का बताया गया है। जबकि निकाचना रूप बन्ध तीर्थंकर के भव से पूर्व तीसरे भव में हो जाता है। इसीलिए कहा गया है“तच्च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाइहिं, बज्झइ; तं तु तइयभवोसक्कइताणं।" प्रश्न है-तीर्थंकर नामकर्म का वेदन कहाँ, कैसे होता है? समाधान है-ग्लानिरहित (प्रसन्नता से सहज आत्मानन्द की मस्ती से) धर्मोपदेश आदि द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का (निकाचित) बन्ध होता है और वह तीर्थंकर भगवान का उत्कृष्टतः तीसरे भव में वह कर्म उदय में आकर (उत्कृष्ट पुण्य-राशि के रूप में) फल प्रदान करता है, तीर्थंकर के रूप में विख्यात करता है। कर्मविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि निकाचन रूप में बँधा हुआ कर्म अवश्यमेव फल देता है, जबकि अनिकाचन रूप से बँधा (उपार्जित किया) हुआ कर्म फल दे भी सकता है और नहीं भी दे सकता। किन्तु निकाचित रूप से बँधा हुआ कंर्म तीसरे भव पूर्व से लेकर तीर्थंकर-भव में पूर्णतया फल भुगवाता है। आशय यह है कि नियमतः तीर्थंकर नामकर्म का निकाचन रूप बन्ध तभी होता है, जब वह आत्मा तीसरे भव में तीर्थंकर (भाव तीर्थंकर) होने वाला हो। निकाचना के फलस्वरूप एक तो वही मनुष्य-भव, जिसमें तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध होता है। दूसरा देव या नरक का भव और तीसरा तीर्थंकर का भव। जो तीर्थंकर निकाचन बन्ध के पूर्व नरकगति का आयुष्य बाँध चुके होते हैं, वे ही मनुष्य-भव पूर्ण करके नरक में जाते हैं, नरक में भी वे तीसरी नरक तक जाते हैं, आगे नहीं। वहाँ तीर्थंकर का जीव तत्त्व दृष्टि और उपशम सहित विरक्त दशा में काल बिताता है। एक ओर नरक की भयंकर वेदना और दूसरी ओर परमाधामी देवों द्वारा अपार संताप, फिर भी उन पर अमैत्रीभाव या कषायभाव न लाकर सव प्रकार की दुर्भावना से रहित रहते हैं, स्वकृत कर्मों का फल समझकर शान्तभाव से १. (क) 'कल्पसूत्र विवेचन' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण (ख) 'जैनभारती, वीतराग वन्दना विशेषांक' से भाव ग्रहण, पृ. ११७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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