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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु * ९९ *
नामकर्म की सर्वोत्कृष्ट पुण्य- प्रकृति के दलिक एकत्रित होकर आत्मा के साथ सम्बद्ध होते हैं। यदि आगे कहे जाने वाले तीर्थंकर नामकर्मबन्ध के २० सूत्रों में से एक या अनेक सूत्रों की साधना सहजभाव से, निष्काम - निःस्वार्थ भावना से इहलौकिक-पारलौकिक कामना - वासना से रहित होकर की जाए, तो ऐसी सतत तीव्र निरतिचार साधना से तीर्थंकर नामकर्म के दलिकों का संग्रह होता रहे तो कालान्तर में, शुद्ध भावों = अध्यवसायों परिणामों की उत्कृष्टता से तीर्थंकर नामकर्म का निकाचित बन्ध हो जाता है । '
किस भव से तीर्थंकर होने का पुरुषार्थ प्रारम्भ हुआ ?
प्रश्न होता है-किस भव से तीर्थंकर होने का पुरुषार्थ शुरू हुआ ? आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि आवश्यक हरिभद्रीया वृत्ति आदि में प्रत्येक तीर्थंकर के भवों की गणना प्रायः मिलती है। तीर्थंकर भगवान के श्रीमुख से सुनकर गणधरों या विशिष्ट श्रुतज्ञानी अथवा श्रुतकेवली आचार्यों ने स्वयं शास्त्रों या ग्रन्थों में उल्लेख किया है। कतिपय तीर्थंकरों के भाव तीर्थंकर बनने तक में कितने भव करने पड़े? इसका उल्लेख इस प्रकार है- भगवान ऋषभदेव के १३ भव, मुनिसुव्रत स्वामी के ९ (३) भव, भगवान अरिष्टनेमि के ९ भव, भगवान पार्श्वनाथ के १० भव और भगवान महावीर के २७ भव । आचार्यों ने प्रत्येक तीर्थंकर के भवों की गणना सर्वप्रथम उन्हें सम्यक्त्व - प्राप्ति हुई, तब से ली है। सम्यग्दर्शन मोक्ष-प्राप्ति का मुख्य द्वार है। मूल आधार है अथवा मोक्ष प्राप्ति की अवश्यम्भाविता ( गारंटी ) का आश्वासन है। अतः सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन अथवा बोधिलाभ को बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इसकी प्राप्ति से मोक्ष जाने की भवितव्यता - भव्यता निश्चित हो जाती है। तीर्थंकरों के भवों की यह गणना सम्यक्त्व - प्राप्ति से लेकर सयोगी केवली (सर्वज्ञ वीतराग ) बनने तक की उनके केवल पंचेन्द्रिय भवों की गणना है। अन्य भवों की गणना इसमें नहीं की गई है। अतः यह भव- गणना व्यवहार दृष्टि से की जाती है। इन परिगणित भवों में तीर्थंकरों द्वारा शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का पुरुषार्थ होता है। शुभ पुरुषार्थ से उनकी आत्मा कर्मों का क्षय करके शुद्ध होती है, ऊपर उठती है; जबकि अशुभ पुरुषार्थ से उनकी आत्मा कर्मों से भारी और अशुद्ध होती है, पिछले शुभ प्रयत्न दब जाते हैं।
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तीर्थंकर नामकर्म अनिकाचित रूप से बँध जाने पर सफलता नहीं मिलती
भगवान महावीर के २७ भवों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे देवलोक में भी गए, नरकगति में भी, विशेषतः सातवीं नरक में भी
१. 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ७०
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