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* ९८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
वैमानिक देवों में जन्म लेते हैं। वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर मनुष्य-लोक में १५ कर्मभूमिक क्षेत्रों में से किसी कर्मभूमिक क्षेत्र में तीर्थंकर के रूप में जन्म ग्रहण करते हैं। मनुष्य-जन्म धारण करने के बावजूद भी जब तक वे तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त करके, चार घातिकर्म क्षय करके वीतराग केवली नहीं बन जाते, तब तक द्रव्य तीर्थकर ही कहलाते हैं। भाव तीर्थंकर वे तेरहवें गुणस्थान से ही माने जाते हैं। तीर्थंकर भव में भी उन्हें राजा-महाराजा के जन्म लेने मात्र में तथा वयस्क होने संसार के भोगविलासों में रत रहते हुए यों ही भाव तीर्थंकरपद. नहीं मिल जाता। उन्हें राज्य-वैभव, धन-धाम, कुटुम्ब-परिवार आदि सब कुछ सांसारिक सम्बन्धों का परित्याग करना पड़ता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत की पूर्ण रूप से सजग रहकर सतत साधना करनी पड़ती है। पूर्ण विरक्त मुनि बनकर एकान्त निर्जन स्थानों में आत्म-चिन्तन-मनन करने, आत्म-स्वरूप में रमण करने का अभ्यास करना पड़ता है। अनेक प्रकार के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःखों को पूर्ण समता और शान्ति के साथ सहन कर मरणान्तक कष्ट देने वाले शत्रु को भी मित्रवत् मानकर उस पर अन्तर्हृदय से दयामृत का झरना बहाना पड़ता है। इस प्रकार सर्वभूतात्मभूत बनकर घातिक कर्मचतुष्टयरूप पापमल से सर्वथा मुक्त होने पर केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति द्वारा भाव तीर्थंकरपद प्राप्त होता है।' तीर्थंकरपद : कब प्राप्त होता है, कब नहीं ?
तीर्थंकरपद की उपलब्धि कोई साधारण साधना नहीं है। एक जन्म की साधना इसकी परिपूर्ण प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। अनेक जन्मों के सत्पुरुषार्थ से आत्मा क्रमशः घातिकर्मों के अनावृत होते-होते तीर्थंकरपद को प्राप्त करती है। तीर्थंकर बनने की अभिलाषा से, किसी ईश्वर, अवतार या शक्ति के वरदान से या याचना करने से तीर्थंकरपद की प्राप्ति नहीं हो सकती। किन्तु सर्वकर्ममुक्त होने या स्व-स्वरूप में सतत अवस्थिति रूप मोक्ष पाने की तीव्र भावना, तदनुरूप पुरुषार्थ तथा बाह्यान्तर सम्यक् तप से एवं समभाव से इस साधना का प्रारम्भ होता है। इस साधना के प्रारम्भ में संवेग (मोक्ष की रुचि, मोक्ष की अभिलाषा = प्रीति) होता है। उस मोक्ष की रुचि में से जीवन्मुक्त अरिहन्त तीर्थंकर भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। उनकी परम वीतरागता, सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता, समता, यथाख्यात-उत्कृष्ट चारित्र आदि उत्तमोत्तम गुणों का चिन्तन-मनन-ध्यान करते हुए उनके प्रति तथा तीर्थंकरत्व-प्राप्ति के २० या १६ कारणों में से एक या अनेक कारणों (गुणों) के प्रति भक्ति, बहुमान, वन्दन-नमस्कार, अर्पण, व्युत्सर्ग आदि करने से तथा उक्त गुणों को अपने जीवन में उतारने का भरसक पुरुषार्थ करने से अर्हन्त तीर्थंकर
१. 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ३१
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