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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु * ९७ *
गया हुआ निराकार ईश्वर अवतार के रूप में बार-बार संसार में जन्म लेता है और फिर वापस चला जाता है। जैनधर्म में मोक्ष प्राप्त होने के पश्चात् संसार में पुनरागमन नहीं माना जाता, क्योंकि जन्म-मरण के अंकुर का बीज कर्म है। जब कर्मबीज जलकर नष्ट हो गया तो उसमें से जन्म-मरण का अंकुर कैसे फूटेगा । अतः यह निर्विवाद सिद्ध है कि तीर्थंकर या अर्हन्त मोक्ष प्राप्त करने के पश्चात् पुनः संसार में अवतरण नहीं करते । '
तीर्थंकर बनने से पूर्व और पश्चात् तीर्थंकर नामकर्मबन्ध, उदय और भावतीर्थंकर तक का क्रम
जैसा कि उत्तारवाद का स्वरूप पिछले पृष्ठ में बताया गया है - तीर्थंकर भी मनुष्य ही होते हैं- औदारिक शरीरधारी । वे कोई विचित्र देवसृष्टि के प्राणी, जन्मजात ईश्वर, अवतार या ईश्वर के अंश जैसे कुछ नहीं होते । एक दिन वे भी साधारण मानव की तरह ही भोगी - विलासी, कर्मों से लिप्त विषय-वासनाओं के गुलाम, पापमल में भी लिप्त थे । संसारी आधि, व्याधि, उपाधि, असमाधि, अशान्ति, दुःख, शोक आदि से संत्रस्त थे । मानव जीवन को कैसे सार्थक किया जाय ? मानवता क्या है ? जीवन की उलझी गुत्थियाँ कैसे सुलझाई जायें, इसका तथा सत्य-असत्य का ? मैं कौन ? कहाँ से आया ? कहाँ जाऊँगा ? इत्यादि तथ्यों और तत्त्वों का उन्हें कुछ भी पता न था। इन्द्रिय-विषय सुख तथा पदार्थनिष्ठ सुख ही उनका एकमात्र ध्येय था। उसी की कल्पना के पीछे अनेक जन्मों में नाना क्लेश- कष्ट उठाते, जन्म-मरण के चक्र में चक्कर खाते घूम रहे थे । किन्तु प्रचुर पुण्य की प्रबलता से, पुण्योदय से किसी न किसी निर्ग्रन्थ, साधु-साध्वी, श्रमण - श्रमणी आदि की उपासना एवं धर्म-श्रवण का लाभ मिला। उत्तम कुल, उत्तम धर्म, मनुष्य-जन्म, आर्यक्षेत्र, पंचेन्द्रिय पूर्णता, स्वस्थता आदि सुयोग मिले। फलतः जड़-चैतन्य का, स्वभावविभाव- परभाव का, शरीर और आत्मा का भेद समझा, सम्यक्त्व को हृदयंगम किया, मिथ्यात्व परित्याग किया, भौतिक और आध्यात्मिक सुख का महान् अन्तर ध्यान में लिया। फलतः सांसारिक सम्बन्धों तथा हिंसादि पापों का पूर्णतः त्यागकर महाव्रतों को स्वीकार कर मोक्षपथ के पथिक बन गए । आत्म-संयम की, रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की साधना में पहले से अनेक जन्मों से ही आगे बढ़ते गए और अन्त में एक दिन पूर्वबद्ध तीर्थंकर नामकर्म के उदय से तीर्थंकर के रूप में जन्म प्राप्त किया।
तीर्थंकर के भव से (तीर्थंकर के रूप में जन्म लेने से ) पहले सर्वप्रथम मनुष्य के भव में निकाचित रूप से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करते हैं। तत्पश्चात् या तो नरकायुष्य पहले से बँधा हो तो नरक में (तीसरी नरक भूमि तक) जाते हैं या फिर
१. (क) 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ३१
(ख) शास्त्रवार्त्ता समुच्चय, श्लो. १४
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