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________________ * ९६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * है। 'विश्वकोष' में कहा गया है-एक शब्द अन्य, प्रधान, प्रथम, केवल, साधारण, समान और संख्या के अर्थ में प्रयुक्त होता है। __अतः स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्मा समान (एक) होते हुए भी अपने-अपने कर्म-कर्तृत्व-भोक्तृत्व की दृष्टि से पृथक्-पृथक् हैं। कर्मों का न्यूनाधिक आवरण ही जीवों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व सिद्ध करता है। कर्मों का आवरण हट जाए तो सिद्ध-परमात्मा और सामान्य आत्मा में कोई अन्तर नहीं रहता। कर्मों के आवरण को हटाने का पुरुषार्थ भी स्वयं (जीव-आत्मा) को ही करना पड़ता है। किसी ईश्वर, देव या अन्य शक्ति द्वारा जीवात्मा का वह कर्मावरण नहीं हट सकता है। जैनमान्य तीर्थकर अवतारवाद का नहीं, उत्तारवाद का प्रतीक है जैनधर्म में मनुष्य से बढ़कर और कोई प्राणी महान् नहीं माना जाता हैं। मनुष्य को ही मोक्ष का या परमात्मपद पाने का अधिकार है। मनुष्य असीम तथा अनन्त शक्तियों का भण्डार है। परन्तु संसार की मोह-माया में लिप्त होने से वह कर्ममल से आवृत है। अतः बादलों से ढके हुए सूर्य के समान है, जो अपना (ज्ञानादि का) प्रकाश सम्यक् रूप से प्रसारित नहीं कर सकता। परन्तु ज्यों ही वह होश में आता है, अपने आत्म-स्वरूप को समझने लगता है, पहचानता है, त्यों ही वह सम्यग्दृष्टि होता है। फिर वह मोहमूढ़ता त्यागकर व्रत-नियम, त्याग, तप-प्रत्याख्यानादि को अपनाता है, दुर्गुण त्यागकर सद्गुणों को अपनाता है। धीरे-धीरे उसकी आत्मा निर्मल, शुद्ध एवं स्वच्छ होती जाती है। क्रमशः आगे बढ़ता हुआ वह एक दिन कषायों और राग-द्वेष-मोह का क्षय करके चार घातिकर्मों को सर्वथा नष्ट करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सयोगी केवली, जीवन्मुक्त अर्हन्त बन जाता है। तथैव पूर्वबद्ध तीर्थंकर नामकर्म के उदय से तीर्थंकरदशा को प्राप्त करता है। अतः यह स्पष्ट है कि जैनमान्य तीर्थंकर अवतारवाद का नहीं, उत्तारवाद का प्रतीक है। उत्तारवाद का अर्थ है-मानव का विकारी जीवन से ऊपर उठकर उत्तरोत्तर पूर्ण निर्विकारी जीवन तक पहुँच जाना, पुनः कदापि विकारों से लिप्त न होना। तीर्थंकर मानव के रूप में जन्म ग्रहण करता है और अपनी पूर्वोक्त आत्म-साधना और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप के बल पर नीचे से सम्यग्दर्शन के गुणस्थान से उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हुआ तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान में पहुँचता है और वीतरागता एवं तीर्थंकरत्व को प्राप्त करता है। फिर अपना शेष आयुष्य भोगकर समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन जाता है, अर्थात् मोक्षदशा प्राप्त करके सदा-सदा के लिए अजर, अमर, अविनाशी, अशरीरी, निरंजन-निराकार सिद्ध परमात्मा बन जाता है। वहाँ से लौटकर पुनः संसार में नहीं आता। वैदिकधर्ममान्य अवतारवाद की मान्यता यह है कि मोक्ष में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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