SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंद में सिंधु * २१ * (योनि में उत्पत्ति के मूल) हैं; यह चिन्तनीय है। इन सबका संयोग भी कारण नहीं है तथा सुख-दुःख का हेतु होने से आत्मा भी जगत् को उत्पन्न करने में असमर्थ है।' इससे स्पष्ट है कि उक्त ऋपियाण विश्ववैचित्र्य के सम्बन्ध में नाना वादों की कल्पना करके रह गये, किन्तु किसी एक निर्णय पर नहीं पहुंच सके। विश्ववैचित्र्य की व्याख्या के सन्दर्भ में कर्मविज्ञान ने सापेक्ष रूप से पाँच वादों को कारण माना। जैन-कर्मवैज्ञानिकों के समक्ष जब यह प्रश्न आया, तब उन्होंने विश्ववैचित्र्य की व्याख्या कर्मवाद के आधार पर की. साथ ही उन्होंने प्रत्येक कार्य में निम्नोक्त पाँच कारणों पर विचार करना अनिवार्य बताया(१) काल, (२) स्वभाव, (३) नियति, (४) कर्म, और (५) पुरुषार्थ। जैन-कर्मविज्ञानवेत्ताओं ने प्रत्येक प्रवृत्ति, कार्य या घटना में इन पाँच कारणों को मुख्यता-गौणता के आधार पर माना। किन्तु जहाँ इन वादों के पुरस्कर्ताओं ने अपने-अपने वादों को ही एकान्तरूप से माना, वहाँ उसको मिथ्या तथा अयुक्तिक कहा। यदृच्छावाद अकारणवाद है, इसे पाँच कारणां में नहीं माना गया। कर्मवाद की जड़ों को काटने वाले कतिपय वाद यदृच्छावाद के अतिरिक्त भी कुछ वाद उस युग में प्रचलित थे. जो कर्मवाद के अस्तित्व का विरोध करने तथा उसकी जड़ काटने वाले थे. उनका भी कर्मविज्ञानविदों ने निराकरण किया है। वे वाद इस प्रकार हैं-(१) भूतवाद. (पंचभूतात्मकवाद), (२) भूतचतुष्टयवाद, (३) डार्विन का विकासवाद, (४) तज्जीवतच्छरीरवाद, (५) पुरुषवाद (जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में निमित्तकारण), (६) ब्रह्मवाद (जगत् के समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों का उपादानकारण). (७) ईश्वरकर्तृत्ववाद, (८) अक्रियावाद. (९) अज्ञानवाद, (१०) अनिश्चयवाद या संशयवाद. (११) प्रच्छन्न निर्यातवाद, (१२) एकान्त विनयवाद, (१३) एकान्त क्रियावाद, (१४) एकान्त ज्ञानवाद (एकमात्र तत्त्वज्ञान से मोक्ष मानने वाला वाद), (१५) प्रकृतिवाद (सांख्यदर्शनमान्य प्रकृति को ही वन्धन कौं-हीं, सुख-दुःखदात्री मानने वाला वाद), (१६) अव्याकृतवाद (बौद्ध मान्य)। पाँच कारणों की समीक्षा .. कर्मविज्ञान ने पूर्वोक्त पाँच कारण वादों की समीक्षा करके इन सबको परस्पर निरपेक्ष होने पर असत्य माना है तथा संसार का प्रत्येक कार्य इन पाँच कारणों के मेल एवं परस्पर सापेक्ष से होता है, यह कतिपय उदाहरणों से सिद्ध करके बताया है तथा अन्त में निष्कर्ष के रूप में कर्म और पुरुषार्थ इन दोनों को पुरुषार्थ के ही रूप बताए हैं-वर्तमान में किया जाने वाला उद्यम पुरुषार्थ है तथा भूतकाल में किया जाने वाला पूर्वकृत पुरुषार्थ कर्म है। पूर्वोक्त तीन कारण जड़ से सम्बद्ध हैं, जबकि ये दो अन्तिम कारण चेतन से सम्बद्ध हैं। इसलिए पुरुषार्थवाद को ही कर्मक्षय में मुख्य कारण मानकर संवर, निर्जरा एवं मोक्ष की ओर गंति-प्रगति करने की प्रेरणा कर्मविज्ञान देता है; क्योंकि चेतना का स्व-पुरुषार्थ ही पाँचों कारणों में उत्तरदायी है। - जैन-कर्मविज्ञान ने द्रव्यकर्म को पुद्गलरूप तो सिद्ध किया ही है। चूँकि जीव के द्वारा वे कपायादिवश आकृष्ट किये जाते हैं, इसलिए उन्हें औपचारिक रूप से कर्म कहा गया है। सांसारिक जीव जो कुछ भी क्रिया या प्रवृत्ति करता है, उसकी प्रतिक्रिया भी पुनः पुनः इसलिए होती है कि आत्मा में रागादि के संस्कार एकदम निर्मूल नहीं होते। अतः वह प्रतिक्रिया एक संस्कार छोड जाती है. वह संस्कार ही कर्म का कारण बनता है। उस संस्कार को भी जैन-दार्शनिकों ने ही नहीं, अन्य आस्तिक दर्शनों ने भी एक या दूसरे नाम से संस्काररूप कर्म माना है। जब प्राणी जागरूक और अप्रमत्त रहकर त्रिविधयोग से कोई प्रवृत्ति या क्रिया करता है, उसकी प्रतिक्रिया यानी बार-बार आवृत्ति होती है. उसी को संस्काररूप कर्म कहा जाता है। वस्तुतः प्रमाद ही संस्काररूप कर्म (आम्रव) का कारण है। चेतन की प्रमादवश कर्मप्रवृत्ति से कार्मणशरीर पर संस्कार अंकित होते रहते हैं. वे ही कालान्तर में पुन जाग्रत होते हैं। उन जाग्रत हुए संस्कारों से प्रेरित होकर जीव पुनः कर्मों में प्रवृत्त होता है। जिससे पुनः कार्मणशरीर पर संस्कार अंकित होते हैं। इस प्रकार संस्कारों का यह चक्र चलता है। संस्कार, धारणा. वृत्ति, आदत एवं स्मृति आदि समानार्थक हैं। अतः द्रव्यकर्म केवल संस्काररूप ही नहीं, पुद्गलरूप भी है, क्योंकि जीव के रागादि परिणामों का निमित्त पाकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy