________________
* २०. * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
स्पन्दनक्रियाजन्य संस्कार भी 'कर्म' शब्द में समाविष्ट हैं। कर्मवर्गणा के (कार्माण) पुद्गलों का योग और कषाय के कारण कर्मरूप में परिणमन होता रहता है। कर्म के दो रूप : द्रव्यकर्म और भावकर्म
जैन-कर्मविज्ञान ने स्व-सिद्धान्तमान्य कर्म के द्रव्यात्मक और भावात्मक दोनों रूप माने हैं। चूँकि कर्म का निर्माण जड़ और चेतन, दोनों के सम्मिश्रण से होता है। द्रव्यकर्म में कर्मवर्गणा के जड़-पुद्गलों की मुख्यता और आत्मिक तत्त्व की गौणता होती है, जबकि भावकर्म में आत्मिक तत्त्व की मुख्यता और पौद्गलिक तत्त्व की गौणता होती है। द्रव्यकर्म-भावकर्म दोनों में आत्मा और पुद्गल की प्रधानता-अप्रधानता होते हुए भी दोनों में एक-दूसरे का सद्भाव-असद्भाव नहीं होता। आशय यह है कि भावकर्म आत्मा का वैभाविक परिणाम है, इस कारण उसका उपादानरूप कर्ता जीव ही है और द्रव्यकर्म कार्मण जाति के पुद्गलों का विकार है, उसका कर्ता भी निमित्तरूप से जीव ही है। इन दोनों की मिलकर कर्मबंध संज्ञा होती है। सांसारिक जीव अनादिकालीन कर्ममलों से युक्त होने से रागादि कषायवश अपने मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों या क्रियाओं से कर्मवर्गणा के पुद्गल-परमाणुओं को आकर्षित कर लेता है, फिर वे आत्म-प्रदेशों के साथ श्लिष्ट-बद्ध हो जाते हैं। अतः प्रवृत्ति और कर्म में परस्पर कार्यकारणभाव को लक्ष्य में रखकर कार्मण-पुद्गल-परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म और तज्जनित राग-द्वेषादि परिणामों से हुई प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया है। इस दृष्टि से जीव की प्रवृत्ति या क्रिया भावकर्म है. उसका फल हैद्रव्यकर्म! किन्त दुसरी दृष्टि से देखें तो द्रव्यकर्म और भावकर्म में निमित्त-नैमित्तिकरूप द्विमखी कार्यकासाव-सम्बन्ध है। अर्थात् भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकम निमित्त है। ये दोनों ही कर्म साथ-साथ आत्मा से सम्बद्ध और बद्ध होते हैं। आत्मा में रागादि भाव (भावकर्मोत्पादक कर्म) मन्द या तीव्र होंगे, तो द्रव्यकर्म भी आत्मा के साथ उतने ही मंदम्प में या तीव्ररूप में बंधेगे। अन्य दर्शनों ने भी प्रकारान्तर से द्रव्य-भावकर्म माने हैं
कर्मविज्ञान ने यह भी बताया है कि अन्य दर्शनों ने भी द्रव्य-भावकर्म को विभिन्न नामों से स्वीकार किया है। जैसे-वेदान्तदर्शन ने आवरण और विक्षेप के रूप में, न्यायदर्शन ने धर्माधर्म संस्कार के रूप में, वैशेषिकदर्शन ने 'अदृष्ट' नाम से, योगदर्शन में अविद्यादि पंचक्लेश और वासना, आशय को द्रव्यकर्म के रूप में माना है। मीमांसादर्शन विहित काम्य कर्मों को द्रव्यकर्म और अपूर्व को भावकर्म माना है। सांख्य और गीता अहंकारयुक्त कर्म भाव-द्रव्यकर्म मानते हैं। बौद्धदर्शन गग-द्वेप-मोह को भावकर्म और कर्म से उत्पन्न वासना व अविज्ञप्ति को द्रव्यकर्म मानता है। सृष्टिकर्तृत्ववादियों द्वारा कर्मवाद पर तीन बड़े आक्षेप और उनका परिहार
सृष्टिकर्तृत्ववादियों द्वारा कर्मवाद पर तीन बड़े आक्षेप किये गए हैं-(१) विविध रंगी जड़-चेतनमयी सृष्टि का मकान आदि के निर्माता की तरह कोई न कोई निर्माता होना चाहिए। (२) प्राणियों को अपने बुरे कर्मों का फल भुगवाने में कारण ईश्वर ही है, कर्म नहीं। (३) कर्मवादियों की मान्यता की तरह ईश्वर अनेक नहीं, एक ही होना चाहिए, जो सर्वशक्तिमान, समर्थ, नित्य, सर्वाधिपति एवं स्वतंत्र हो। नाना ईश्वर होने से जगत् की व्यवस्था विगड़ जायेगी। कर्मविज्ञान ने इन तीनों आक्षेपों का सयुक्तिक परिहार किया है। कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी औपनिषदकों द्वारा छह वादों की कल्पना
इसके पश्चात् कर्मवाद के अस्तित्व को चुनौती देने वाले श्वेताश्वतरोपनिषद् में उक्त निम्नक्ति छह वादों का उल्लेख किया है, जिनका उल्लेख उपनिषद्कालीन ऋपियों ने इस विश्ववैचित्र्य का क्या कारण है ? हम सब कहाँ से उत्पन्न हुए हैं ? अपने सुख-दुःख में हम सब किसके अधीन होकर प्रवृत्त होते हैं ? हम मव किसके बल पर जीवित हैं ? इन जिज्ञासाओं से प्रेरित होकर किया था। वे छह वाद ये हैं-“काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथ्वी आदि पंचभूत, और पुरुष। फिर उन्होंने स्वयं शंका प्रकट की है-ये जगत् के कारण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org