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________________ * कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *१९* अग्रायणीच पूर्वशास्त्र आदि में ) कर्मशास्त्र संकलित हुआ । तत्पश्चात् पूर्वी से उद्धृत करके आकर कर्मशास्त्रों की रचना हुई । श्वेताम्बर - परम्परा में कर्मप्रकृति (कम्मपयडी), शतक, पंचसंग्रह और सप्ततिका; ये चार महाग्रन्थ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं; जबकि दिगम्बर-परम्परा में महाकर्मप्रकृति-प्राभृत और कषाय-प्राभृत, ये दो ग्रन्थ पूर्वों से उद्धृत माने जाते हैं। इसके पश्चात् प्राकरणिक कर्मशास्त्रों की रचना हुई । श्वेताम्बर आचार्यों ने प्राचीन छह कर्मग्रन्थों की तथा आचार्य देवेन्द्र सूरि ने इन्हीं का अनुसरण करके प्रत्येक विषय को संक्षिप्त तथा कतिपय नये विपयों का समावेश करते हुए छह नये कर्मग्रन्थों की रचना की। उधर दिगम्बर- परम्परा के आचार्यों ने पूर्वोद्धृत महाकर्म- प्राभृत के छह खण्डों (षट्खण्डागम) पर अतिविस्तृत धवला टीका की तथा कपाय- प्राभृत पर पन्द्रह अर्थाधिकारों में जयधवला की रचना की । इसके अतिरिक्त इस समग्र कर्म-साहित्य पर दोनों परम्पराओं में इन सभी कर्मशास्त्रों पर हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, बंगला आदि भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है तथा इस प्रगतिशील वैज्ञानिक युग में कर्मविज्ञान का उपर्युक्त भाषाओं में मनोविज्ञान, योगदर्शन, समाजशास्त्र, शिक्षाविज्ञान, जीवविज्ञान, भौतिकविज्ञान एवं शरीरविज्ञान आदि के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक विवेचन, अध्ययन-मनन, . परिशीलन एवं साहित्य-सृजन हो रहा है। इस प्रकार कर्मविषयक साहित्य का सृजन उत्तरोत्तर कर्मवाद के समुत्थान से लेकर विकास के सोपानों पर चढ़ता रहा है। शरीरशास्त्र और मानसशास्त्र की अपेक्षा कर्मशास्त्र की विशेषता शरीरशास्त्र और मानसशास्त्र शरीर और मन की परिधि में ही विचार करते हैं, जबकि कर्मशास्त्र सबके पृथक्-पृथक् व्यक्तित्व, योग्यता और क्षमता कारण की अलग-अलग और शरीर तथा मन से सम्बद्ध बातों का सर्वांगीण विश्लेषण करता है। अर्थात् कर्मशास्त्र प्रत्येक घटना, व्यक्ति, आचरण, व्यवहार या समस्या के मूल कारण की मीमांसा करता है। कर्मशास्त्र आत्मा के हिताहित आदि प्रत्येक सम्बन्धित विषय में विचार - चिन्तन प्रस्तुत करता है। इसलिए वह अध्यात्मशास्त्र से भिन्न नहीं है। कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र के उद्देश्य की ही पूर्ति करता है। चिकित्सक, ज्योतिपी, भूतवादी, डॉक्टर आदि किसी रोग के बहिरंग कारणों को बताकर बाह्य इलाज करते हैं. जबकि कर्मशास्त्र रोग के आन्तरिक कारण तथा उसके निवारण का स्पष्ट निर्देश करता है। कर्म का विराट् स्वरूप विभिन्न वर्गों की दृष्टि में कर्म जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न वर्ग के लोगों में भिन्न-भिन्न व्यवहारों में तथा समाज के विभिन्न घटकों में 'कर्म' शब्द का प्रयोग पृथक्-पृथक् अर्थों में होता है। आम जनता तो सभी काम-धंधों को, व्यवसायों को, आजीविका सम्बन्धी कार्यों को तथा शारीरिक, वाचिक और मानसिक सभी क्रियाओं या प्रवृत्तियों को 'कर्म' कहती है । वैयाकरणों (शब्दशास्त्रियों) ने कर्त्ता के लिये अभीष्टतम कारक को, वेदवादरत लोगों ने विविध यज्ञादि अनुष्ठानों को स्मार्त विद्वानों ने चार वर्ण और चार आश्रमों के लिए विहित कर्त्तव्यों को, नैयायिक-वैशेषिकों ने आत्मा के संयोग और प्रयत्न द्वारा हाथ आदि से होने वाली • क्रिया को, बौद्धदार्शनिकों ने चेतना द्वारा मन-वचन-काय से होने वाली क्रिया को, भगवद्गीता ने फलाकांक्षा और आसक्ति से रहित होकर समर्पणभाव से किये गए योगयुक्त कर्म को 'कर्म' माना है। जैन-कर्मविज्ञान की दृष्टि में कर्म का स्वरूप जैन-कर्मविज्ञान ने जीव के द्वारा होने वाली स्वाभाविक (ज्ञातृत्व - द्रष्टत्वरूप) क्रियाओं या श्वास आदि अकृतक क्रियाओं को कर्म नहीं माना है, किन्तु जीव (आत्मा) के द्वारा कर्तृत्व- भोक्तृत्व आदि से प्रेरित होकर मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय ( राग-द्वेष- मोहादि ) एवं योग आदि हेतुओं ( कारणों) से, मन-वचन-काया से जो किया जाता है, उसे 'कर्म' कहा है। इस लक्षण के अनुसार 'कर्म' के अन्तर्गत कर्मबन्ध के हेतु तथा तदनुरूप द्रव्यात्मक भावात्मक, परिस्पन्दनरूप परिणमनरूप, क्रियारूप या पर्यायरूप सभी कार्य पूर्वोक्त कारणों से जीव द्वारा किये जाएँ तो वे 'कर्म' ही हैं। इस दृष्टि से उक्त कारणपूर्वक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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