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________________ * ९० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * ___ पहले बताया गया था कि तीर्थंकरों और अन्य मुक्त होने वाले महान् आत्माओं की आन्तरिक आध्यात्मिक शक्तियों में कोई अन्तर नहीं होता। अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय शुद्ध आत्मा के निजी गुण हैं, वे भी अन्य मुक्तात्माओं में और तीर्थंकरों में समान होते हैं। जो कुछ अन्तर है, वह है लोक-कल्याणकर कार्यों का और धर्म-तीर्थ . स्थापना आदि की मौलिक दृष्टि का और अन्य योग-सम्बन्धी अद्भुत शक्तियों कासिद्धियों और लब्धियों का। वे अपने अद्भुत तेजोबल से अज्ञान एवं अन्ध-विश्वासों का अन्धकार और मिथ्यात्व छिन्न-भिन्न कर देते हैं। उन्हें कई अद्भुत योगज सिद्धियाँ और उपलब्धियाँ अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं। पूर्वोक्त ३४ अतिशय प्रायः योगज' सिद्धियों के ही प्रकार हैं। योगज सिद्धियों के प्रभाव (अतिशय) से तीर्थंकरों का शरीर अत्यन्त निर्मल एवं पूर्ण स्वस्थ रहता है, मुख के श्वास-उच्छ्वास सुगन्धित होते हैं। वैरानुबद्ध-विरोधी प्राणी भी उपदेश श्रवण कर शान्त हो जाते हैं। उनकी उस क्षेत्र में उपस्थिति में महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष आदि के प्रकोप नहीं होते। उनके प्रभाव से दुःसाध्य व्याधिग्रस्त व्यक्ति की व्याधि भी शान्त हो जाती है। उनकी वाणी में यह चमत्कार होता है कि आर्य या अनार्य मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक भी उनकी दिव्य वाणी का भावार्थ समझ लेते हैं। ये और इस प्रकार की अनेक लोकोपकारी सिद्धियों तथा अलौकिक योग सिद्धियों के स्वामी तीर्थंकर होते हैं। जबकि दूसरे मुक्त होने वाले जीवों में न तो तीर्थंकर जैसी धर्म-तीर्थ स्थापना, दक्षता होती है और न ही योगज सिद्धियों का स्वामित्व। हाँ, अष्ट कर्मों से मुक्त सिद्धावस्था प्राप्त कर लेने के पश्चात् उनमें और तीर्थंकरों में कोई भी भेदभाव नहीं रहता।' अहन्त तीर्थकर में पाये जाने वाले चारों अतिशय अन्य लोगों में भी : एक चिन्तन कोई कह सकता है कि तीर्थंकरों में पाये जाने वाले पूर्वोक्त चारों अतिशयों (प्रजातिशा ज्ञानतिशय, वचनातिशय और अपायापगमातिशय) में से पूजातिशय तो प्रायः कतिपय देवों, अवतारों, पैगम्बरों, धर्म-गुरुओं तथा जादूगरों में पाया जान सदि है। कई मंत्र-तंत्रवादी या जादूगर भी देवों को प्रत्यक्ष बुला लेते हैं। अवतार, पैगम्बर और धर्म-गुरु भी भगवान की तरह पूजे जाते हैं। कुछ देवताओं को भी जनता भगवान मानकर पूजती है। इसी प्रकार कई अपायापगमातिशय भी कतिपय जादूगरों और वैज्ञानिकों, पूर्वकालिक विद्याधरों में भी पाये जाते हैं, जैसे पिछले पृष्ठ का शेष(ख) चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ता, तं वाही खिप्पमिव उवसमंति। -समवायांगसूत्र. समवाय ३४ १) देखें- जैनतत्त्वकलिका में विशेष विवरण, पृ. १४-१६ * चिन्तन की मनोभूमि से भाव ग्रहण, पृ. ३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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