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________________ * विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ९१ * आकाश में उड़ना, कई घंटों तक समाधि लगाकर फिर बाहर आ जाते हैं। कई योगियों को पूर्वोक्त अतिशय में बताई गई योगज सिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं, वे उसका प्रदर्शन भी करते हैं। सिद्धियों और लब्धियों की प्राप्ति का अहंकार और मद भी उनके मन में आता है। वचनातिशय में भी भगवान महावीर के समकक्ष तीर्थकर वचनातिशय भी बहुत-से लोगों में यौगिक साधना से, अभ्यास से तथा किसी दैवी शक्ति के अनुग्रह से होना सम्भव है। यही कारण है कि प्राचीनकाल में कई विशिष्ट गुण-सम्पन्न या बौद्धिक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे, जो वाक्पटु, वचनसिद्ध एवं धर्मोपदेश कुशल थे। वे वाकौशल, हस्तकौशल, सम्मोहन, मंत्र-तंत्र विद्या या ज्योतिष आदि विद्याओं के प्रयोग से भूत-भविष्य कथन करने में प्रवीण थे। इन और ऐसी ही कतिपय विद्याओं से चमत्कार बताकर वे उस युग में जिन, तीर्थंकर, अर्हत् या जगद्गुरु कहलाने लगे थे। ___ कहते हैं-भगवान महावीर के युग में ही श्रमणों के चालीस से अधिक सम्प्रदाय थे। जिनमें से छह प्रसिद्ध श्रमण-सम्प्रदायों का उल्लेख बौद्ध-साहित्य में भी आता है। वे क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) अक्रियावाद का प्रवर्तक-पूरण काश्यप, (२) नियतिवाद का प्रवर्तक-मक्खली गोशालक (आजीवक सम्प्रदाय का आचार्य), (३) उच्छेदवाद का आचार्य-अजितवशकम्बली, (४) अन्योऽन्यवाद का आचार्यप्रबुद्ध कात्यायन, (५) चातुर्मास संवरवाद के प्ररूपक-निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र, और (६) विक्षेप (संशय) वाद का आचार्य-संजय वेलट्ठि के पुत्र। इनमें से प्रायः सभी अपने अनुयायियों द्वारा तीर्थंकर, जिन अथवा अर्हत् कहे जाते थे। बुद्ध भी 'जिन' एवं ‘अर्हत्' कहलाते थे। गोशालक एवं जामाली भी अपने आप को 'जिन' या 'तीर्थंकर' कहते थे। तीर्थकर की परीक्षा चार अतिशयों के ___ आधार पर करने में कठिनाई सभी के भक्तों और अनुयायियों ने अपने-अपने आराध्य पुरुष के जीवन के साथ देवों का आगमन, अमुक-अमुक सिद्धियों की प्राप्ति, मंत्र-तंत्रादि प्रयोग से आकाश में उड़ना, पानी पर चलना तथा अन्य वैभवपूर्ण आडम्बरों से जनता को आकर्षित, प्रभावित करना और जन-समूह को इकट्ठा कर लेना आदि कुछ न कुछ चमत्कार जोड़ दिये थे। योगी लोगों के चमत्कार उस युग में प्रसिद्ध थे और आज भी प्रसिद्ध हैं। ज्ञानातिशय भी कई व्यक्तियों को विभगज्ञान, भूत-भविष्य के ज्ञान, १. (क) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. २७ .. (ख) 'विसुद्धिमग्गो' से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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