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________________ * विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ८९ * ओर तीर्थंकर भगवान परम आध्यात्मिक व्यक्तित्व के प्रतीक बनते हैं। इन दोनों के द्वन्द्वात्मक व्यक्तित्व का नाम है-तीर्थंकर। इन दोनों बाह्य और आन्तरिक विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण तीर्थंकर अरहन्त भगवान लोकवन्दनीय त्रिलोकपूजित हो जाते हैं। विश्व में तीर्थंकरों को सर्वश्रेष्ठ पुरुष के रूप में पूज्यता प्राप्त है, क्योंकि वे अध्यात्म की भूमिका पर चार घनघातिकर्मों का सर्वथा क्षय करके अनन्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र और शक्ति से सम्पन्न होते हैं। उनके बाह्य और आन्तरिक व्यक्तित्व में जो विशेषताएँ प्राप्त होती हैं, उनमें से अधिकांश तो तीर्थंकर की सहज योग साधना से, पुण्यातिशयवश प्रकट होती हैं।' चौंतीस अतिशयों के नाम और संक्षिप्त अर्थ आगमिक भाषा में उन्हें (अपायापगम) अतिशय कहते हैं, वे संख्या में ३४ हैं-(१) उनके केश, रोम, श्मश्रु नहीं बढ़ते, (२) शरीर रोगरहित रहता है, (३) रक्त और माँस दुग्धसम श्वेत होते हैं, (४) श्वासोच्छ्वास में कमल-सी सुगन्ध रहती है, (५) आहार-नीहार विधि चर्मचक्षुओं से अगोचर होती है, (६) सिर के ऊपर आकाश में तीन छत्र होते हैं, (७) उनके आगे-आगे आकाश में धर्म-चक्र चलता है, (८) उनके, दोनों ओर आकाश में श्वेत चामर होते हैं, (९) स्फटिक सिंहासन होता है, (१०) आगे-आगे इन्द्रध्वज चलता है, (११) जहाँ-जहाँ तीर्थंकर रुकते-ठहरते हैं, वहाँ अशोक-वृक्ष प्रादुर्भूत हो जाता है, (१२) उनके चारों ओर दिव्य भामण्डल होता है, (१३) तीर्थंकरों के आसपास का भूभाग रमणीय होता है, (१४) काँटे औंधे मुँह हो जाते हैं, (१५) ऋतुएँ अनुकूल हो जाती हैं, (१६) सुखकारक वायु चलती है, (१७) भूमि की धूल जल-बिन्दुओं से शान्त हो जाती है, (१८) पाँच वर्ण के अचित्त पुष्पों का ढेर लग जाता है, (१९-२०) अशुभ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अभाव हो जाता है और शुभ शब्दादि प्रकट हो जाते हैं, (२१) भगवान की वाणी एक योजन तक समान रूप से सुनाई देती है, (२२-२३) भगवान का प्रवचन अर्ध-मागधी भाषा में होता है, समस्त श्रोता प्रवचन को अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं, (२४) भगवान के सान्निध्य में जन्मजात वैरी भी अपना वैरभाव भूल जाते हैं, (२५) विरोधी भी नम्र हो जाते हैं, (२६) प्रतिवादी निरुत्तर हो जाते हैं, (२७-२८) भगवान के आसपास २५ योजन के परिमण्डल में ईति, महामारी आदि नहीं होती, (२९-३३) जहाँ-जहाँ भगवान विहार करते हैं, वहाँ-वहाँ स्वचक्र, परचक्र, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, रोग आदि के उपद्रव नहीं होते, (३४) भगवान के चरण स्पर्श से उस क्षेत्र के पूर्वोत्पन्न सारे उपद्रव शान्त हो जाते हैं। १. 'जैनभारती, वीतराग वन्दना विशेषांक' से भाव ग्रहण, पृ. ११७ २. (क) 'जैनभारती, वीरताग वन्दना विशेषांक' से भाव ग्रहण, पृ. १६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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