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________________ * ८८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * (३५) अव्युच्छेदितत्वम्-जब तक विवक्षित अर्थों की सम्यक् प्रकार से सिद्धि न हो जाये, तब तक भगवान अविच्छिन्न रूप से नयों और प्रमाणों से उसकी सिद्धि करते हैं।' अपायापगमातिशय : क्या, कैसे और किस प्रकार से ? तीर्थंकर उन सशरीर (सदेहमुक्त) सर्वज्ञ आत्माओं के प्रतीक हैं, प्रतिनिधि हैं, जिनकी सर्वज्ञता के साथ तीर्थंकर नामकर्मजनित कतिपय विशिष्ट पुण्य-प्रकृतियों का उदय होता है। उन विशिष्ट पुण्यातिशय के कारण उनके शारीरिक सम्पदा में . तथा व्यावहारिक जीवन में कुछ विशेषताएँ प्रकट होती हैं, उन. विशेषताओं के कारण उनके पुण्य-प्रभाव से अड़चनें, विघ्न-बाधाएँ या अपाय आदि स्वतः दूर हो जाते हैं। वे उन विघ्न-बाधाओं, अड़चनों, दिक्कतों, विपदाओं, अपायों, संकटों आदि के निवारण करने के लिये कोई विकल्प या विचार भी नहीं करते, न ही किसी प्रकार का स्वयं प्रयत्न करते हैं, न उन विघ्न-बाधादि को दूर करने के लिए किसी को निर्देश-आदेश देते हैं। सहजभाव से अनायास ही उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति में इन पूर्वोक्त चौंतीस अतिशयों में से कोई भी तदनुरूप अतिशय स्वतः प्रकट हो जाता है। पुण्यातिशय से प्राप्त ये शारीरिक, वाचिक या व्यावहारिक अतिशय आधिभौतिक हैं। इन अतिशयों के प्रभाव से तीर्थंकरों का बाह्य व्यक्तित्व चुम्बकवत् आकर्षणीय हो जाता है। इनसे तीर्थंकर उत्कृष्ट आधिभौतिक व्यक्तित्व के प्रतीक बनते हैं, जबकि सर्वज्ञता, वीतरागता, परम समता आदि परम आध्यात्मिक हैं, अतः दूसरी १. (क) पणतीसं सच्चवयणा इसेसा पण्णत्ता । -समवायांगसूत्र, समवाय ३५ (ख) संस्कारवत्त्वमौदात्यंमुपचार-परीतता। मेघ-गम्भीर-घोषत्वं प्रतिनादविधायिता॥१॥ दक्षिणत्वमुपनीतरागत्वं च महार्थता। अव्याहतत्वं शिष्टत्वं संशयावामसम्भवः॥२॥ निराकृताऽन्योत्तरत्वं हृदयंगमताऽपि च। मिथः साकांक्षता प्रस्तावौचित्यं तत्त्वनिष्ठता ॥३॥ अप्रकीर्ण-प्रसृतत्वमस्वश्लाघाऽन्यनिन्दिता। आभिजात्यमतिस्निग्ध-मधुरत्वं प्रशस्यता॥४॥ अमर्म-वेधित्वमौदार्य-धर्मार्थ-प्रतिबद्धता। कारकाद्यविपर्यासो विभ्रमादिवियुक्तता॥५॥ चित्रकृत्त्वमद्भुतत्वं तथाऽनतिविलम्विता। अनेकजाति वैचित्र्य मारोपित-विशेषता॥६॥ सत्त्व-प्रधानता वर्ण-पद वाक्यविविक्तता। अव्युच्छित्तिरखेदित्वं पंचत्रिंशच्च वाग्गुणाः॥७॥ -अभिधान चिन्तामणि कोष, देवाधिदेवकाण्ड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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