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________________ * विशिष्ट अरिहन्त तीर्थकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ८७ * (२१) अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वम्-भगवद् वचन अर्थ और धर्म से प्रतिबद्धअर्थ-धर्मस्वरूप-प्रतिपादक सार्थक होता है। (२२) उदारत्वम्-भगवान द्वारा वाक्योच्चारण अभिधेय अर्थ का पूर्णतया प्रतिपादक होता है। (२३) परनिन्दाऽऽत्मोत्कर्ष-विप्रयुक्तत्वम्-भगवद् वचन पर-निन्दा और आत्म-प्रशंसा से रहित वीतरागता से युक्त होता है। (२४) उपगत-श्लाघत्वम्-भगवद् वचन तीनों लोकों में श्लाघनीय-प्रशंसनीय होते हैं। (२५) अनपनीतत्वम्-भगवद् वाक्य कारक, वचन, काल, लिंग आदि के व्यत्ययरूप वचनदोष से रहित निर्दोष एवं सुसंस्कृत होता है। (२६) उत्पादिताछिन्न-कौतूहलत्वम्-भगवद् वचन श्रोताओं के हृदय में अविच्छिन्नता से अहोभाव (कौतूहलभाव) उत्पन्न करता है। (२७) अद्भूतत्वम्-भगवद् वचन श्रोताओं के हृदय में अपूर्व-अपूर्व भाव उत्पन्न करते हैं। (२८) अनतिविलम्बितत्वम्-भगवान की उपदेश शेली न तो अत्यन्त विलम्बकारी होती है, न ही अतिशीघ्रतापूर्वक, किन्तु मध्यम रीति से प्रभावोत्पादिका होती है। (२९) विभ्रम-विक्षेप-किलकिंचितादि-विमुक्तत्वम्-भगवद् वचन भ्रान्ति, चित्तविक्षेप, रोष, भय, आसक्ति आदि मनोगत दोषों से रहित आप्त-वाक्य होते हैं। (३०) अनेक-जाति-संश्रयाद् विचित्रत्वम्-भगवद् वचनों में वस्तुस्वरूप का • कथन नय-प्रमाणादि अनेक जाति के संश्रय के कारण विचित्रता होती है। - (३१) आहित-विशेषत्वम्-भगवद् वचन प्राणिमात्र के हित-विशेष को लिये हुए पवित्र होते हैं। (३२) साकारत्वम्-भगवान प्रत्येक वाक्य, अर्थ, पद और वर्णन स्फुट (स्पष्ट) कहते हैं। उनके वाक्य अस्पष्ट, मिश्रित या निरर्थक नहीं होते। - (३३) सत्व-परिगृहीतत्वम्-भगवद् वचन ऐसे सात्विक या सत्वशाली होते हैं, जिनसे श्रोताओं में साहस और निर्भयता का संचार हो जाता है। (३४) अपरिखेदित्वम्-भगवान अनन्त बली होने से १६ प्रहर तक लगातार देशना देते हुए भी खेद नहीं पाते, थकते नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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