________________
* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु * ८१ *
ये आठ महाप्रातिहार्य भगवान के विशिष्ट यशोनामकर्मजनित पुण्योदय से प्रगट होते हैं और उनके पूजातिशय के कारण उपलक्षित होते हैं। इसके अतिरिक्त अरहन्त तीर्थंकर ६४ इन्द्रों द्वारा पूजनीय होते हैं, यह भी उनका पूजातिशय है।
ज्ञानातिशय क्या और किस रूप में ? : उसकी अर्हता कब ?
अर्हन्त भगवान अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के धारक, सम्पूर्ण (केवल ) ज्ञानी, त्रिकाल - त्रिलोकज्ञ, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। उनके ज्ञान का अतिशय समग्र लोक को प्रकाशित करता है, जिससे लोक का अज्ञान और मिथ्यात्वरूपी अन्धकार दूर होता है।'
'उत्तराध्ययनसूत्र' के केशी- गौतम संवाद में जब गौतम स्वामी ने कहा कि अब सम्पूर्ण लोक में प्रकाश करने वाला निर्मल केवलज्ञानरूपी सूर्य उदित हो चुका है, वह समस्त प्राणियों के लिये प्रकाश करेगा। इस पर केशी स्वामी ने जिज्ञासावश पूछा - " ऐसा ज्ञानसूर्य कौन है ?, कैसी अर्हता से ज्ञानसूर्य बना है और किस प्रकार लोक में उद्योत करेगा ?" गौतम स्वामी ने कहा - " जिसका संसार क्षीण (जन्म-मरण का चक्र नष्ट ) हो चुका है, जो सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हो चुका है तथा ( सर्वज्ञता के प्रतिबन्धक रागादि शत्रुओं को जीतकर ) जिन -भास्कर के रूप में उदित हो गया है, वही ( अज्ञान एवं मिथ्यात्व के अन्धकार से ग्रस्त ) समग्र लोक के जीवों के लिए प्रकाश करेगा। यह है अर्हन्त को प्राप्त सर्वज्ञता द्वारा ज्ञानातिशय का 'चमत्कार।'
तीर्थंकर की सर्वज्ञता : पूर्वकृत उत्कृष्ट पुण्यवश आत्मौपम्याभाव की चरितार्थता
प्रश्न होता है- अर्हन्त तीर्थंकर केवलज्ञान- केवलदर्शन ( सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता) पाकर कृतकृत्य हो जाते हैं। अब उन्हें क्या करना शेष है ? मिथ्यात्व और अज्ञान के अन्धकार में पड़े हुए जनसमूह को प्रबोध देने से या उनमें ज्ञान का प्रकाश करने से उनकी मुक्ति में क्या विशेषता आती है और जनता को प्रबोध न देने, उनमें ज्ञान की ज्योति न जगाने से उनकी कौन-सी विशेषता कम हो जाती है या उनकी मुक्ति अटक जाती है ?
जैनागमों के मर्मज्ञ इन सब प्रश्नों का समाधान यही देते हैं कि सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हो जाने से पूर्व ही उनके चार घातिकर्म नष्ट हो चुके होते हैं और शेष रहे चार
Jain Education International
१.. (क) उत्तराध्ययन, अ. २३, गा. ७५-७८
(ख) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. ९
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org